अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
यौ ते॑ मा॒तोन्म॒मार्ज॑ जा॒तायाः॑ पति॒वेद॑नौ। दु॒र्णामा॒ तत्र॒ मा गृ॑धद॒लिंश॑ उ॒त व॒त्सपः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । ते॒ । मा॒ता । उ॒त्ऽम॒मार्ज॑ । जा॒ताया॑: । प॒ति॒ऽवेद॑नौ । दु॒:ऽनामा॑ । तत्र॑ । मा । गृ॒ध॒त् । अ॒लिंश॑: । उ॒त । व॒त्सऽप॑: ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यौ ते मातोन्ममार्ज जातायाः पतिवेदनौ। दुर्णामा तत्र मा गृधदलिंश उत वत्सपः ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । ते । माता । उत्ऽममार्ज । जाताया: । पतिऽवेदनौ । दु:ऽनामा । तत्र । मा । गृधत् । अलिंश: । उत । वत्सऽप: ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(जातायाः१) उत्पन्न हुई के (यौ) जो दो [स्तन], (ते) तेरी (माता) माता ने (उन्ममार्ज१) परिमार्जित किये थे, (पतिवेदनौ) जो दो कि पति को प्राप्त करने के लिये हैं, (तत्र) उन में (दुर्णामाः) दुर्नाम या दुष्परिणामोत्पादक (अलिंशः) भ्रमराकृतिक रोगोत्पादक क्रिमि (मा) न (गृधत्) अभिकाङ्क्षा अर्थात् अभिलाषा करे (उत) तथा (वत्सपः) वत्सप क्रिमि (मा) न (गृधत्) अभिकाङ्क्षा अर्थात् अभिलाषा करे।
टिप्पणी -
[जब "स्त्रीशिशु" उत्पन्न हो तब उसकी माता उस के दोनों स्तनों का विशेषरूप में शुद्ध जल द्वारा परिमार्जन करे, शुद्ध करे। "स्त्री शिशु" के दो स्तन उस के भावी पति के सूचक है। ये दो स्तन उत्पन्न शिशु के स्तन्यपान के लिये हैं। स्तन्यपान के लिये, शिशु की सत्ता चाहिये, और शिशु की सत्ता के लिये शिशु की माता का पति चाहिये। इस प्रकार स्त्री के दो स्तन पति को प्राप्त करने के लिये हैं– यह कथन समुचित ही है। पुरुष और स्त्री में अङ्गों का भेद उन के परस्पर सम्बन्ध का सूचक है, अन्यथा यह भेद निष्प्रयोजन होगा। इन दो स्तनों में रोगोत्पादक कीटाणु अर्थात् germs, दो हैं। एक का नाम है "अलिंश" और दूसरे का नाम है "वत्सप"। ये दोनों दुर्नामा हैं, दुष्परिणामों के उत्पादक है। "अलिंश" का अभिप्राय सायणाचार्य के अनुसार "अलयो भ्रमराकारेण वर्तमाना केचन रोगाः, तदभिमानिदेवाः वा"। अर्थात अलि हैं भ्रमराकृति वाले रोग, या रोगों के उत्पादक जन्तु अर्थात् "रोगकीटाणु"। यह भ्रमराकृतिक रोग "कैंसर" प्रतीत होता है। इस रोग के उत्पादक जन्तु की आकृति cancer अर्थात् केकड़े-जन्तु के सदृश होती है, जिसे सायणाचार्य ने भ्रमराकृतिक कहा है। अलिंश पद "अलि" और "श" का रूप है। “अलि" अर्थात् भ्रमर की आकृति में "श" शयन करने वाला। अलिंश-कीटाणु रक्त में कुछ काल तक शयन करता रहता है, अज्ञातावस्था में रहता है, और कालान्तर में रोग उत्पन्न कर देता है। "वत्सप" भी दुर्नामा कीटाणु है। वत्सप का अभिप्राय है "वत्स" द्वारा पेय दुग्ध को पी जाने वाला। "वत्सप" कीटाणु, माता के स्तन्य [दुग्ध] को पैदा नहीं होने देता। अतः यह वत्सप है। इस सूक्त में नानाविध कीटाणुओं का वर्णन है, जिन स्वरूपों और रोगोत्पादन की शक्तियों का अनुसन्धान अपेक्षित है। अथर्ववेद में रोगकीटाणुओं को "क्रिमि" कहा है (२।३१।१-५; २।३२।१-६)। अलिंश=अलिश (सायण)]। [१. "जाता" के स्तनों का परिमार्जन जातकर्म संस्कार का एक अङ्ग है।]