अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 24
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
ये सूर्या॑त्परि॒सर्प॑न्ति स्नु॒षेव॒ श्वशु॑रा॒दधि॑। ब॒जश्च॒ तेषां॑ पि॒ङ्गश्च॒ हृद॒येऽधि॒ नि वि॑ध्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठये । सूर्या॑त् । प॒रि॒ऽसर्प॑न्ति । स्नु॒षाऽइ॑व । श्वशु॑रात् । अधि॑ । ब॒ज: । च॒ । तेषा॑म् । पि॒ङ्ग: । च॒ । हृद॑ये । अधि॑ । नि । वि॒ध्य॒ता॒म् ॥६.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सूर्यात्परिसर्पन्ति स्नुषेव श्वशुरादधि। बजश्च तेषां पिङ्गश्च हृदयेऽधि नि विध्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठये । सूर्यात् । परिऽसर्पन्ति । स्नुषाऽइव । श्वशुरात् । अधि । बज: । च । तेषाम् । पिङ्ग: । च । हृदये । अधि । नि । विध्यताम् ॥६.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(ये) जो (सूर्यात् परि) सूर्य का परिवर्जन कर के (सर्पन्ति) सर्पण करते हैं, (इव) जैसे कि (स्नुषा) पुत्रवधू (श्वशुरात्) श्वशुर से (अधि) परे-परे विचरती है, (ब्रजः च पिङ्गः च) वज और पिङ्ग (तेषाम्) उनके (हृदयेऽधि) हृदय में (नि विध्यताम्) नितरां वेधन करें।
टिप्पणी -
[सूर्यात् परि= सूर्य वर्जयित्वा। अपपरी वर्जने (अष्टा० १।४।८९)। सूर्य की रश्मियों में रोगकीटाणु मर जाते हैं अतः वे निज जीवनार्थ सूर्य रश्मियों को वर्जित कर सर्पण करते हैं। (अथर्व० २।३२।१)। वजः, पिङ्गः= भूरे तथा श्वेत सर्षप= सरसों के बीज। मन्त्र में रोगकीटाणुओं का वर्णन है। तथा चोर आदि का भी जो कि सूर्य को परिवर्जित कर के रात्रीकाल में चौर्य आदि कर्म करते हैं। इस अभिप्राय में "वजः" = वाजः = बलशाली (निघं० २।९)। पिङ्गः अर्थात् रक्षक राजपुरुष (मन्त्र २१)। "पिङ्ग" के साहचर्य से "वज" का अभिप्राय है रक्षकवर्ग के साथ गति करने वाले अन्य बलशाली सहायक। वज व्रज गतौ (भ्वादिः)]।