अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 26
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
अ॑प्र॒जास्त्वं॒ मार्त॑वत्स॒माद्रोद॑म॒घमा॑व॒यम्। वृ॒क्षादि॑व॒ स्रजं॑ कृ॒त्वाप्रि॑ये॒ प्रति॑ मुञ्च॒ तत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्र॒जा:ऽत्वम् । मार्त॑ऽवत्सम् । आत् । रोद॑म् । अ॒घम् । आ॒ऽव॒यम् । वृ॒क्षात्ऽइ॑व । स्रज॑म् । कृ॒त्वा । अप्रि॑ये । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । तत् ॥६.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्रजास्त्वं मार्तवत्समाद्रोदमघमावयम्। वृक्षादिव स्रजं कृत्वाप्रिये प्रति मुञ्च तत् ॥
स्वर रहित पद पाठअप्रजा:ऽत्वम् । मार्तऽवत्सम् । आत् । रोदम् । अघम् । आऽवयम् । वृक्षात्ऽइव । स्रजम् । कृत्वा । अप्रिये । प्रति । मुञ्च । तत् ॥६.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(अप्रजास्त्वम्) प्रजा का न होना, (मार्तवत्सम्) मृतपुत्र का पैदा होना, (आत्) तदनन्तर (रोदम्) रोना, (अघम्) पाप [जिस कारण अप्रजासत्व आदि पैदा होते हैं] उनका (आ वयम्) सदा बुनते रहना, [जैसे कि पट को बुना जाता है], इन सब अप्रजास्त्व आदि को, (वृक्षात्) वृक्ष [के पुष्पों से] (स्रजं कृत्वा इव) रचो मालारूप१ कर के, (तत्) उसे (अप्रिये) अप्रियपक्ष में (प्रतिमुञ्च) डाल। आवयम्= असकृद् वयनम् (सायण)।
टिप्पणी -
[गृहस्थ जीवन में अप्रजासत्व, मार्तवत्स, तथा इन के कारण रोदन तथा इन की सत्ता का कारण पाप और इस पाप-पट का आवयन अर्थात् बुनते रहना, मानो यह मालारूप है। इन सब को परस्पर सम्बन्धी जानकर सब का उच्छेद साथ-साथ करना चाहिये, एक-एक का पृथक्-पृथक् काल में नहीं। राष्ट्रोन्नति के लिये इन सब का उच्छेद आवश्यक है। "अप्रजास्त्व" आदि की सत्ता में कारणीभूत पाप "द्विविध" है। (१) दुराचारियों के पापमय कर्म। (२) तथा गृहजीवन में अतिभोग और अमर्यादित भोग, पति और पत्नीकृत। यह भी पापमय है।] सूक्त ६ सम्बन्धी व्याख्या [ सूक्त ६ में वर्णित वज और पिङ्ग को सर्षप मान कर विशेष व्याख्या। सायणाचार्य ने श्वेत-और-पीत तथा श्वेत-और-गौर सर्षपों को वज-और-पिङ्ग कहा है। "वज" नामक सर्षप को "दुर्णामा" कीटों तथा कीटाणुओं का हननकारी कहा है, और पति-या-गौर सर्षप को "सुनामा" कहा है। दोनों प्रकार के सर्षपों का वर्णन आयुर्वेद के ग्रन्थों में मिलता है। दोनों प्रकार के सर्षप दो जाति के सरसों बीज हैं। यथा "सरसों के पौधे का बीज कुछ ललाई लिये हुए पीले रङ्ग के होते हैं। एक जाति के सरसों के बीज सफेद होते हैं। लाल और सफेद सरसों समान ही गुण वाली होती हैं। किन्तु तो भी सफेद सरसों, लाल की अपेक्षा उत्तम होती है। इन दोनों के गुणावगुण नाना वर्णित हुए हैं। परन्तु यहां वे ही लिखे जाते हैं जिन का सम्बन्ध सूक्त ६ के विषय के साथ सम्बद्ध है। "यथा" ये कृमिनाशक तथा गृहपीड़ा अर्थात स्त्री सम्बन्धी पीड़ा अर्थात् स्त्री सम्बन्धी पीड़ाओं को दूर करते, तथा विष नाश करते हैं। सरसों का रस और पाक राक्षस बाधा, कृमि, और गृह की बाधा को दूर करता है। "सरसों को पीस कर उस का शाफा बना कर, मासिकधर्म के स्नान के पश्चात् तीन दिन तक योनि में रखने से गर्भधारण होता है" (वनौषधि चन्द्रोदय, चन्द्रराज भण्डारी, विशारद, ज्ञानमन्दिर, भानपुरा)। [१. अर्थात् जैसे वृक्ष से प्राप्त पुष्पों की माला रख कर प्रिय को पहनाई जाती है, अप्रजासत्व, मृत वत्सस्व, रोद और अधरूपी पुष्पों की माला को तू अप्रियपक्ष में डाल, अर्थात् इस "पापमयी" माला को अप्रिय जान कर गृहस्थ जीवन में तू इस का परित्याग कर दे।]