यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - परमेश्वरो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
5
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ऽआसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥१॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्य॒ग॒र्भ इति॑ हिरण्यऽग॒र्भः। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। अग्रे॑। भू॒तस्य॑। जा॒तः। पतिः॑। एकः॑। आ॒सी॒त्। सः। दा॒धा॒र॒। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। उ॒त। इ॒माम्। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाङ्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिरण्यगर्भ इति हिरण्यऽगर्भः। सम्। अवर्त्तत। अग्रे। भूतस्य। जातः। पतिः। एकः। आसीत्। सः। दाधार। पृथिवीम्। द्याम्। उत। इमाम्। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥१॥
विषय - अब तेईसवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (भूतस्य) उत्पन्न कार्यरूप जगत् के (अग्रे) पहिले (हिरण्यगर्भः) सूर्य, चन्द्र, तारे आदि ज्योति गर्भरूप जिसके भीतर हैं, वह सूर्य आदि कारणरूप पदार्थों में गर्भ के समान व्यापक स्तुति करने योग्य (समवर्त्तत) अच्छे प्रकार वर्त्तमान और इस सब जगत् का (एकः) एक ही (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) पालना करनेहारा (आसीत्) होता है (सः) वह (इमाम्) इस (पृथिवीम्) विस्तारयुक्त पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य आदि लोकों को रचके इनको (दाधार) तीनों काल में धारण करता है, उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सुख देनेहारे परमात्मा के लिये जैसे हम लोग (हविषा) सर्वस्व दान करके उस की (विधेम) परिचर्या सेवा करें, वैसे तुम भी किया करो॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब सृष्टि प्रलय को प्राप्त होकर प्रकृति में स्थिर होती है और फिर उत्पन्न होती है, उस के आगे जो एक जागता हुआ परमात्मा वर्त्तमान रहता है, तब सब जीव मूर्छा सी पाये हुए होते हैं। वह कल्प के अन्त में प्रकाशरहित पृथिवी आदि सृष्टि तथा प्रकाशसहित सूर्य आदि लोकों की सृष्टि का विधान, धारण और सब जीवों के कर्मों के अनुकूल जन्म देकर सब के निर्वाह के लिये सब पदार्थों का विधान करता है, वही सब को उपासना करने योग्य देव है, यह जानना चाहिये॥१॥
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