यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 30
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - राजा देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं प॒शु मन्य॑ते।शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति॥३०॥शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति॥३०॥
स्वर सहित पद पाठयत्। ह॒रि॒णः। यव॑म्। अत्ति॑। न। पु॒ष्टम्। प॒शु। मन्य॑ते। शू॒द्रा। यत्। अर्य्य॑जा॒रेत्यर्य्य॑ऽजारा। न। पोषा॑य। ध॒ना॒य॒ति॒ ॥३० ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टम्पशु मन्यते । शूद्रा यदर्यजारा न पोषाय धनायति ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। हरिणः। यवम्। अत्ति। न। पुष्टम्। पशु। मन्यते। शूद्रा। यत्। अर्य्यजारेत्यर्य्यऽजारा। न। पोषाय। धनायति॥३०॥
विषय - फिर वह राजा कैसे आचरण करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(यत्) जो राजा (हरिणः) हरिण जैसे (यवम्) खेत में उगे हुए जौ आदि को (अत्ति) खाता है, वैसे (पुष्टम्) पुष्ट (पशुः) देखने योग्य अपने प्रजाजन को (न) नहीं (मन्यते) मानता अर्थात् प्रजा को हृष्ट-पुष्ट नहीं देख के, खाता है वह (यत्) जो (अर्य्यजारा) स्वामी वा वैश्य कुल को अवस्था से बुड्ढा करने हारी दासी (शूद्रा) शूद्र की स्त्री के समान (पोषाय) पुष्टि के लिये (न) नहीं (धनायति) अपने धन को चाहता है॥३०॥
भावार्थ - जो राजा पशु के समान व्यभिचार में वर्त्तमान प्रजा की पुष्टि को नहीं करता, वह धनाढ्य शूद्रकुल की स्त्री, जो कि जारकर्म करती हुई दासी है, उसके समान शीघ्र रोगी होकर अपनी पुष्टि का विनाश करके धनहीनता से दरिद्र हुआ मरता है। इससे राजा न कभी ईर्ष्या और न व्यभिचार का आचरण करे॥३०॥
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