यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 30
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - राजा देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
261
यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं प॒शु मन्य॑ते।शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति॥३०॥शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति॥३०॥
स्वर सहित पद पाठयत्। ह॒रि॒णः। यव॑म्। अत्ति॑। न। पु॒ष्टम्। प॒शु। मन्य॑ते। शू॒द्रा। यत्। अर्य्य॑जा॒रेत्यर्य्य॑ऽजारा। न। पोषा॑य। ध॒ना॒य॒ति॒ ॥३० ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टम्पशु मन्यते । शूद्रा यदर्यजारा न पोषाय धनायति ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। हरिणः। यवम्। अत्ति। न। पुष्टम्। पशु। मन्यते। शूद्रा। यत्। अर्य्यजारेत्यर्य्यऽजारा। न। पोषाय। धनायति॥३०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कथमाचरेदित्याह॥
अन्वयः
यत् यो राजा हरिणो यवमत्तीव पुष्टं पशु न मन्यते, स यदर्य्यजारा शूद्रेव पोषाय न धनायति॥३०॥
पदार्थः
(यत्) यः (हरिणः) पशु (यवम्) (अत्ति) (न) (पुष्टम्) (पशुः) पशुम् (मन्यते) (शूद्रा) शूद्रस्य स्त्री (यत्) या (अर्य्यजारा) अर्य्यौ स्वामिवैश्यौ जारयति वयसा हन्ति सा (न) निषेधे (पोषाय) पुष्टये (धनायति) आत्मनो धनमिच्छति॥३०॥
भावार्थः
यो राजा पशुवद् व्यभिचारे वर्त्तमानः प्रजापुष्टिं न करोति, स धनाढ्या शूद्रा जारा दासीव सद्यो रोगी भूत्वा पुष्टिं विनाश्य धनहीनतया दरिद्रः सन् म्रियते तस्माद् राजा कदाचिदीर्ष्यां व्यभिचारं च नाचरेत्॥३०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसे आचरण करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(यत्) जो राजा (हरिणः) हरिण जैसे (यवम्) खेत में उगे हुए जौ आदि को (अत्ति) खाता है, वैसे (पुष्टम्) पुष्ट (पशुः) देखने योग्य अपने प्रजाजन को (न) नहीं (मन्यते) मानता अर्थात् प्रजा को हृष्ट-पुष्ट नहीं देख के, खाता है वह (यत्) जो (अर्य्यजारा) स्वामी वा वैश्य कुल को अवस्था से बुड्ढा करने हारी दासी (शूद्रा) शूद्र की स्त्री के समान (पोषाय) पुष्टि के लिये (न) नहीं (धनायति) अपने धन को चाहता है॥३०॥
भावार्थ
जो राजा पशु के समान व्यभिचार में वर्त्तमान प्रजा की पुष्टि को नहीं करता, वह धनाढ्य शूद्रकुल की स्त्री, जो कि जारकर्म करती हुई दासी है, उसके समान शीघ्र रोगी होकर अपनी पुष्टि का विनाश करके धनहीनता से दरिद्र हुआ मरता है। इससे राजा न कभी ईर्ष्या और न व्यभिचार का आचरण करे॥३०॥
विषय
हरिण और खेत तथा स्वामी और दासी के दृष्टान्त से प्रबल राजा की धनलालसा से प्रजा की समृद्धि के नाश हो जाने की चेतावनी ।
भावार्थ
(यत्) जब (हरिणः) हरिण ( यवम् ) जौ को ( अत्ति ) खाता है तब क्षेत्रपति (पशुम् ) पशु को (पुष्टम् ) पुष्ट हुआ ( न मन्यते ) नहीं मानता । प्रत्युत वह अपने खेत का विनाश हुआ जानता है । इसी प्रकार यदि सत्ताधारी लोग यवरूप प्रजा को खा जायं तो प्रजास्वामी राजा (पशुम् ) सत्ताधिकारी को पुष्ट हुआ नहीं मानता, प्रत्युत प्रजा का विनाश होता देख दुःखी होता है । इसलिये राजा प्रजा को हानि पहुँचा कर राजशक्ति को पुष्ट न करे । (यद्) जब (शूद्रा) शूद्र वर्ण की स्त्री दासी (अर्थ-जारा) स्वामी को जार रूप से प्राप्त करती है तब वह (पोषाय) अपने कुटुम्ब पोषण के लिये धन नहीं प्राप्त कर पाती । इस प्रकार जो प्रजा (शूद्रा) केवल श्रमशील होकर ( अर्थ-जारा ) अपने स्वामी की बल वृद्धि के लिये ही स्वयं निर्बल होती रहती है और वह ( पोषाय ) अपने को समृद्ध वा पुष्ट करने के लिये (न धनायति) धन की आकांक्षा नहीं कर पाती तब वह नष्ट हो जाती है । इसलिये प्रजा को चाहिये कि वह राजा के भोग ऐश्वर्य के बढ़ाने के लिये अपना नाश न करे । इसी कारण विद्वानजन वैशीपुत्र या वैश्यवृत्ति के राजा का अभिषेक नहीं करते, वह प्रजा का समस्त ऐश्वर्यं स्वयं हर लेता है, और प्रजा को समृद्ध नहीं होने देता ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
राजा देवता । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
हरिण
पदार्थ
१. (यत्) = जब (हरिणः) = राष्ट्र, अर्थात् राष्ट्र का अधिकारी राजा (यवम्) = प्रजा को [विड् वै यवो राष्ट्र हरिणः- श० १३।२।९।८] (अत्ति) = खाने लगता है तब वह (पुष्टम्) = पोषणवाली को, राष्ट्र की उन्नति को (पशु) = [ पशुम् - प्रजा वै पशव:- श०१ |४| ६ | १७ ] प्रजा को (न मन्यते) = आदर नहीं देता। वे पुष्ट प्रजाएँ ही वस्तुतः राष्ट्र की उन्नति का भी मूल है, ऐसा वह नहीं समझता। ऐसा न समझकर वह भारी करों द्वारा व अन्य उपायों द्वारा उनकी सम्पत्ति को हड़पने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार अपने ही मूल को समाप्त कर लेता है। ऐसा राजा अपने भोग-विलास को ही महत्त्व देता है, प्रजा के पोषण को नहीं। २. एक (शूद्रा) = दासी (यत्) = जब (अर्यजारा) = स्वामी की 'जारा' बनकर उसकी शक्तियों को जीर्ण करनेवाली होती है तब वह (पोषाय) = वंश-पोषण के लिए (न धनायति) = सन्तान-धन की इच्छा नहीं करती। वहाँ भोगवासना का प्राधान्य होता है, वंशवृद्धि की भावना का वहाँ अभाव होता है। इसी प्रकार जिस राजा में विलास की वृत्ति आ जाती है, वह प्रजोन्नतिरूप धन की कामना से शून्य हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- जैसे एक दासी अपने स्वामी का उपभोग करती हुई वंशवृद्धि की कामनावाली नहीं होती, उसी प्रकार एक विलासी वृत्तिवाला राजा प्रजा को अत्यधिक कर आदि द्वारा खाता हुआ प्रजा -पोषण को महत्त्व नहीं देता ।
मराठी (2)
भावार्थ
जो राजा पशूप्रमाणे व्याभिचारी असेल तो प्रजेला बलवान करू शकत नाही. शुद्र कुलातील दासी ज्याप्रमाणे व्याभिचार करून लवकर रोगी बनते. त्याप्रमाणेच धनाढ्य राजाचाही बलहीनतेमुळे नाश होतो व तो धनहीन व दरिद्री बनून मरतो. त्यामुळे राजाने कधीही ईषा करू नये व व्याभिचार करू नये.
विषय
राजाने कसे वागावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ज्याप्रमाणे एक (हरिणः) हरण (मृग) (यवम्) शेतात उगवलेले जन धान्य (अत्ति) खातो, तद्वत (यत्) जो राजा (पुष्टम्) आपल्या प्रजेला (पुष्टम्) पुष्ट, (संतुष्ट व आनंदी) (पशुः) पाहत (न) नाही (ज्याची प्रजा प्रसन्न ना संतुष्ट, स्वस्थ नाहीं) (यत्) असा तो राज (आपल्या राज्याचे धन ब्रजेच्या उत्कर्ष व लाभासाठी वापरत नाहीं, तर घृणित वा अहितकारी कार्यात गुंतवितो) (अर्य्यजारा) स्वामीला वा वैश्यमुळाला (आपल्या विषयीवृत्तीद्वारा) वृद्ध वा क्षीण करणार्या (शूद्रा) शूद्रदासी प्रमाणे (पोषाय) (राज्याच्या) (पोषाय) पुष्ठीकरिता (न) (धनायति) आपले धन करते, तद्वत राजाचे दुष्ट धन व्यर्थ कामात व्यय होते) ॥30॥
भावार्थ
भावार्थ - जो राजा व्यभिचारी प्रजेला सदाचारी करण्यासाठी प्रयत्न करीत नाही, तो शीघ्र रोगी होऊन आपल्या राज्याचा व संपदेचा विनाश करून घेतो. जशी एक शुद्रकुळातील धनाढ्य स्त्री वा दासी जार कर्म केल्यामुळे रोगी होऊन मृत्यु पावते, तसे त्या राजाचाही अंत होतो. तो व राज्य दरिद्र होते. यामुळे राजाने कधीही कोणाचा ईर्ष्या-द्वेष करू नये व व्यभिचार करू नये ॥30॥
इंग्लिश (3)
Meaning
A licentious king who squeezes money out of his subjects, like the deer who destroys the barley field, cannot see his people thrive. A Shudra maid-servant who has got illicit connection with her master, does not desire the progress of her family.
Meaning
When the deer eats up the barley it does not care for the field but destroys it. A servant woman who is the mistress of her master loves money but not for the well-being of her master or of her family. So when a ruler exploits his people, he does not care for their well¬ being, he destroys the nation.
Translation
When wild deer eat the barley crop, the farmer does not feel that the cattle are growing strong; similarly, a low category woman, having a secret lover belonging to a higher category, is not a matter of satisfaction to her husband. (1)
Notes
When wild deer feed on the crop, the farmer does not think that the animal is being nourished. Similarly, when the wife of a Sūdra takes a lover, who is a Vaisya, the husband of the woman does not think that he is getting rich.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স রাজা কথমাচরেদিত্যাহ ॥
পুনঃ সেই রাজা কেমন আচরণ করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ৎ) যে রাজা (হরিণঃ) হরিণ যেমন (য়বম্) ক্ষেত্রে উৎপন্ন যবাদিকে (অত্তি) আহার করে সেইরূপ (পুষ্টম্) পুষ্ট (পশু) দেখিবার যোগ্য স্বীয় প্রজাকে (ন) না (মন্যতে) মানে অর্থাৎ প্রজাকে হৃষ্ট পুষ্ট না দেখিয়া, ভক্ষণ করে সে (য়ৎ) যে (অর্য়্যজারা) স্বামী বা বৈশ্য কুলকে অবস্থা হইতে বৃদ্ধকারিণী দাসী (শূদ্রা) শূদ্রের স্ত্রী সদৃশ (পোষায়) পুষ্টি হেতু (ন) না (ধনায়তি) নিজ ধনের কামনা করে ॥ ৩০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে রাজা পশুর সমান ব্যাভিচারে বর্ত্তমান প্রজার পুষ্টি করে না সে ধনাঢ্য শূদ্রকুলের স্ত্রী যে জারকর্ম করিতে থাকা দাসী, তাহার সমান রুগী হইয়া স্বীয় পুষ্টির বিনাশ করিয়া ধনহীনতা দ্বারা দরিদ্র হইয়া মরে, ইহাতে রাজা কখনও ঈর্ষা ও ব্যভিচারের আচরণ করিবে না ॥ ৩০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়দ্ধ॑রি॒ণো য়ব॒মত্তি॒ ন পু॒ষ্টং প॒শু মন্য॑তে ।
শূ॒দ্রা য়দর্য়॑জারা॒ ন পোষা॑য় ধনায়তি ॥ ৩০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়দ্ধরিণ ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । রাজা দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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