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यजुर्वेद अध्याय - 23

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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 17
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    181

    अ॒ग्निः प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॑न्न॒ग्निः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः। वा॒युः प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॑न् वा॒युः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः। सूर्यः॑ प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॒न्त्सूर्य्यः॒ स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। अ॒ग्निः। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः। वा॒युः। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। वा॒युः। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः। सूर्यः॑। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। सूर्य्यः॑। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँल्लोकमजयद्यस्मिन्नग्निः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैताऽअपः । वायुः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँल्लोकमजयद्यस्मिन्वायुः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैताऽअपः । सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँलोकमजयद्यस्मिन्त्सूर्यः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैता अपः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। अग्निः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः। वायुः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। वायुः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः। सूर्यः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। सूर्य्यः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 17
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ के पशव इत्याह॥

    अन्वयः

    हे जिज्ञासो! यस्मिन् सोऽग्निः पशुरासीत् तेनाऽयजन्त तेन त्वं यज यथा स विद्वांस्तेनैतं लोकमजयत् तयैतं जय तं चेज्जेष्यसि तर्हि सोऽग्निस्ते लोको भविष्यति, अतस्त्वमेता यज्ञेन शोधिता अपः पिब। यस्मिन् स वायुः पशुरासीद् येन यजमाना अयजन्त तेन त्वं यज यथा स एतं लोकमजयत् तथा त्वं जय, यदि तं जेष्यसि तर्हि स वायुस्ते लोको भविष्यति, अतस्त्वमेता अपः पिब। यस्मिन्स सूर्य्यः पशुरासीत् तेनायजन्त यथा स एतं लोकमजयत् तथा त्वं जय यदि त्वं तं जेष्यसि तर्हि स सूर्यस्ते लोको भविष्यति तस्मात्त्वमेता अपः पिब॥१७॥

    पदार्थः

    (अग्निः) वह्निः (पशुः) दृश्यः (आसीत्) अस्ति (तेन) (अयजन्त) यजन्तु (सः) (एतम्) (लोकम्) द्रष्टव्यम् (अजयत्) जयति (यस्मिन्) लोके (अग्निः) (सः) (ते) तव (लोकः) (भविष्यति) (तम्) (जेष्यसि) (पिब) (एताः) (अपः) जलानि (वायुः) (पशुः) द्रष्टव्यः (आसीत्) (तेन) (अयजन्त) (सः) (एतम्) वाय्वधिष्ठातृकम् (लोकम्) (अजयत्) जयति (यस्मिन्) (वायुः) (सः) (ते) (लोकः) (भविष्यति) (तम्) (जेष्यसि) उत्कर्षयसि (पिब) (एताः) (अपः) प्राणान् (सूर्यः) (पशुः) दृश्यः (आसीत्) (तेन) (अयजन्त) (सः) (एतम्) सूर्याधिष्ठितम् (लोकम्) (अजयत्) जयति (यस्मिन्) (सूर्यः) (सः) (ते) (लोकः) (भविष्यति) (तम्) (जेष्यसि) (पिब) (एताः) (अपः) व्याप्तान् प्रकाशान्॥१७॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! सर्वेषु यज्ञेष्वग्न्यादीनेव पशून् जानन्तु, नैव प्राणिनोऽत्र हिंसनीया होतव्या वा सन्ति, य एवं विदित्वा सुगन्ध्यादिद्रव्याणि सुसंस्कृत्याऽग्नौ जुह्वति, तानि वायुं सूर्य्यं च प्राप्य वृष्टिद्वारा निवर्त्य ओषधीः प्राणान् शरीरं बुद्धिं च क्रमेण प्राप्य सर्वान् प्राणिन आह्लादयन्ति। एतत्कर्त्तारः पुण्यस्य महत्त्वेन परमात्मानं प्राप्य महीयन्ते॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पशु कौन हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्याबोध चाहने वाले पुरुष! (यस्मिन्) जिस देखने योग्य लोक में (सः) वह (अग्निः) अग्नि (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है, (तेन) उससे जिस प्रकार यज्ञ करने वाले (अयजन्त) यज्ञ करें, उस प्रकार से तू यज्ञ कर। जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस (लोकम्) देखने योग्य स्थान को (अजयत्) जीतता है, वैसे इसको जीत, यदि (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो वह (अग्निः) अग्नि (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा, इससे तू (एताः) इन यज्ञ से शुद्ध किये हुए (अपः) जलों को (पिब) पी। (यस्मिन्) जिसमें (सः) वह (वायुः) पवन (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है और जिससे यज्ञ करने वाले (अयजन्त) यज्ञ करें (तेन) उससे तू यज्ञ कर। जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस वायुमण्डल के रहने के (लोकम्) लोक को (अजयत्) जीते, वैसे तू जीत, जो (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो वह (वायुः) पवन (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा। इससे तू (एताः) इन (अपः) यज्ञ से शुद्ध किये हुए प्राण रूपी पवनों को (पिब) धारण कर (यस्मिन्) जिसमें वह (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है, (तेन) उससे (अयजन्त) यज्ञ करने वाले यज्ञ करें, जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस सूर्य्यमण्डल के ठहरने के (लोकम्) लोक को (अजयत्) जीतता है, वैसे तू जीत। जो तू (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो (सः) वह (सूर्यः) सूर्य्यमण्डल (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा, इससे तू (एताः) यज्ञ से शुद्धि किये हुए (अपः) संसार में व्याप्त हो रहे सूर्यप्रकाशों को (पिब) ग्रहण कर॥१७॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! सब यज्ञों में अग्नि आदि को ही पशु जानो, किन्तु प्राणी इन यज्ञों में मारने योग्य नहीं, न होमने योग्य हैं। जो ऐसे जानकर सुगन्धि आदि अच्छे-अच्छे पदार्थों को भलीभांति बना, आग में होम करनेहारे होते हैं, वे पवन और सूर्य को प्राप्त होकर वर्षा के द्वारा वहां से छूट कर ओषधि, प्राण, शरीर और बुद्धि को क्रम से प्राप्त होकर सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस यज्ञकर्म के करने वाले पुण्य की बहुताई से परमात्मा को प्राप्त होकर सत्कारयुक्त होते हैं॥१७॥

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    विषय

    अग्नि, वायु, सूर्य के दृष्टान्त से विजयाभिलाषी राजा के कर्तव्यों का उपदेश । अग्नि, वायु, सूर्य तीनों के पशु कहाने का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) 'अग्नि', ज्ञानी ( पशुः ) सर्वद्रष्टा, मार्गदर्शक, ( आसीत् ) है । (तेन) उससे विद्वान् लोगों के समान दिव्य पांच भूत ( अजयन्त) यज्ञ करते हैं । (सः) वह ( एतं लोकम् ) इस लोक को ( अजयत् ) विजय करता है, ( यस्मिन् अग्निः) जिसमें अग्नि तत्व ही मुख्य बल है । तू भी हे राजन् ! अग्नि के समान तेजस्वी होकर राष्ट्र का निरीक्षक, साक्षी होकर रह । और इससे (सः) वह यह भूलोक (ते लोकः) तेरा अपना आश्रयस्थान (भविष्यति) हो जाएगा। तू (तं जेष्यसि ) उस लोक को विजय कर लेगा । इसके लिये (एताः अपः ) इन आत पुरुषों का ज्ञान रस और इन प्रजाओं के ऐश्वर्य रस का (पिब) पान और पालन कर । ( वायुः पशुः आसीत् ) 'वायु' सर्वद्रष्टा है, (तेन अयजन्त ) देवगण उससे यज्ञ करते हैं । (सः) वह वायु ( एतम् लोकम् अजयत् ) इस अन्तरिक्ष लोक का विजय करता है (यस्मिन् वायुः) जिसमें वायु प्रधान बल है । (ते सः लोकः भविष्यति) तेरा वही लोक हो जायगा (तं जेष्यसि )तू उसका विजय करेगा । (एताः अपः पिब) तू इन आप्तजनों और प्रजागणों के ज्ञान और ऐश्वर्य का पान, पालन कर । ( सूर्यः 'पशुः आसीत् ) सूर्य सर्वद्रष्टा है । देवगण (तेन अजयन्त) उससे ही यज्ञ करते हैं । ( सः एतं लोकम् अजयत् ) सूर्य उस लोक का विजय करता है ( यस्मिन् सूर्यः) जिसमें सूर्य स्वयं विराजता है । (तं जेष्यसि, ते सः -लोकः भविष्यति ) तू उसका विजय करेगा तेरा भी वही लोक हो जायगा । ( एताः अपः पिब ) इन आप्तजनों के ज्ञानों और प्रजाओं का ऐश्वर्य पान और पालन कर । अर्थात् राजा वायुबत् प्रचण्ड हो तो उसको मुख्य बनाकर 'देव' विजिगीष जन युद्ध-यज्ञ करते हैं। उससे वे अन्तरिक्ष लोक अर्थात् मध्यम राजाओं पर विजय करते हैं। इससे वह अन्तरिक्ष में वायु के समान और प्रजा का प्राण होकर विराजता है । यही राजा का अन्तरिक्ष विजय है । इसी प्रकार सूर्य के समान प्रखर तेजस्वी को मुख्य बनाकर विजिगीषु युद्ध-यज्ञ करते हैं । इससे वह स्वयं राजा सूर्य के समान 'धुलोक' अर्थात् समस्त राजाओं और विद्वानों पर वश पाता है । वह समस्त राजाओं के बीच, सूर्य के समान विराजता है । इन तीनों दशाओं में उसको प्रजा का ऐश्वर्य और विद्वानों का साहाय्य प्राप्त करना और उनका पालन करना आवश्यक है । इस मन्त्र की योजना अ० ६ । १० के साथ लगाकर देखो - ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्न्यादयो देवताः। श्रतिशक्वर्यौ । पंचमः ॥

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    विषय

    अग्नि-वायु-सूर्य

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के देवयान मार्ग में देव अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। सबसे प्रथम इस पृथिवीलोक के ग्यारह देवताओं का मुखिया यह (अग्निः) = अग्निदेव (पशुः आसीत्) = [दृश्य:- द० ] दर्शन व ज्ञान का विषय बनता है। इस अग्निदेव का ज्ञान प्राप्त करके (तेन) = उस अग्निदेव के साथ (अयजन्त) = वे अपना मेल बढ़ाते हैं [यज्-सङ्गतिकरण] । इस अग्नि को अपने विविध यत्नों से उपयुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुतः इस अग्नि के ज्ञान व प्रयोग से (सः) = यह अग्नितत्त्व का वेत्ता ज्ञानी पुरुष (एतं लोकम्) = इस पृथिवीलोक को (अजयत्) = जीत लेता है। (यस्मिन् अग्निः) = जिस लोक में यह अग्नि मुख्य देवता है (सः लोक:) = वह लोक (ते) = तेरा (भविष्यति) = हो जाएगा, (तं जेष्यसि) = उस लोक को तू विजय कर लेगा। वस्तुतः बिना ज्ञान के हम इन अग्नि आदि देवों को अपना नहीं बना सकते। इनसे उपयुक्त लाभ नहीं ले सकते। इनका विजय इनके ज्ञान से ही होता है। इसके लिए तू (एताः अप:) = शरीर में रेतरूप से रहनेवाले इन अप्कणों का [ आपः रेतो भूत्वा० ] (पिब) = पान कर। इनको तू शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न कर। २. अग्नि के ज्ञान के (पश्चात् वायुः पशुः आसीत्) = अन्तरिक्षलोक के देवताओं का मुखिया यह वायुदेव ज्ञान का विषय हुआ। इन देवों ने वायु का ज्ञान प्राप्त किया। तेन अयजन्त उस वायुदेव से इन्होंने अपना सङ्ग बढ़ाया। इसे अपने यत्नों व व्यवहार में उपयुक्त किया और अब (सः) = इसने (एतं लोकं अजयत्) = इस वायु के आधारभूत अन्तरिक्षलोक को जीत लिया। इस विजय से (यस्मिन् वायुः) = जिसमें यह वायु मुख्यदेव है (सः लोकः) = वह अन्तरिक्षलोक (ते) = तेरा भविष्यति होगा। (तं जेष्यसि) = उस लोक को तू जीत लेगा । (एता अपः पिब) = तू इन सोमकणों को अपने अन्दर व्याप्त करने का प्रयत्न कर। वायु का ठीक ज्ञान हो जाने पर ही मनुष्य अन्तरिक्षलोक में अपने वायुयान आदि को चला पाता है और इस लोक को जीत लेता है। ३. अब अग्नि व वायु के ज्ञान के पश्चात् इन देवों का (सूर्य:) = द्युलोकस्थ देवों का मुख्यदेव सूर्य (पशुः आसीत्) = दृश्य व ज्ञान का विषय बनता है। ऋग्वेद में इन्होंने अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त किया तो यजुर्वेद में वायु इनके ज्ञान का विषय बना और अब साम में वे सूर्य को ज्ञान का विषय बनाते हैं। ('अग्नेर्वा ऋग्वेदः, वायोर्यजुर्वेदः, सूर्यात् सामवेदः । तेन अयजन्त') = सूर्य के साथ ये विद्वान् अपना सङ्ग बढ़ाते हैं। इसकी किरणों से अपने यन्त्रादि को परिचालित करने का प्रयत्न करते हैं। (सः) = इस सूर्य का ज्ञान प्राप्त करके वह (एतं लोकम्) = इस सूर्य के आधारभूत द्युलोक को (अजयत्) = जीत लेता है। (यस्मिन् सूर्य:) = जिस द्युलोक में यह सूर्य है (सः) = वह (ते लोकः) = तेरा लोक (भविष्यति) = हो जाएगा। (तं जेष्यसि) = उस लोक को तू जीत लेगा। उसके ज्ञान से तू द्युलोक को अपने अनुकूल कर पाएगा, इसके लिए (एता अपः पिब) = इन रेतःकणों को तू अपने अन्दर पीने का प्रयत्न कर।

    भावार्थ

    भावार्थ- देववृत्तिवाले लोग 'अग्नि वायु-सूर्य' आदि देवों [प्राकृतिक शक्तियों] का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इनके ज्ञान को अपने यन्त्रादि में विनियुक्त करते हैं। अपने हितसाधनों में इन्हें विनियुक्त करते हुए वे इनपर विजय प्राप्त करते हैं। ये सब प्राकृतिक शक्तियाँ देवों के लिए हितकर हो जाती हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! सर्व यज्ञात अग्नीलाच पशू (पाहण्यायोग्य) समजा. प्राण्यांना मारून यज्ञात बळी देऊ नका. जे लोक हे जाणतात, ते सुगंधित पदार्थ होमात टाकून यज्ञ करतात. ते पदार्थ वायू व सूर्यापर्यंत पोहोचतात. ते पर्जन्याच्या माध्यमाने पृथ्वीवर येतात आणि क्रमाने औषध (वृक्षवनस्पती) , प्राण, शरीर व बुद्धी इत्यादी बनतात व सर्व प्राण्यांना आनंद देतात असा यज्ञ करणारे अधिक पुण्य करून परमेश्वराला प्राप्त करतात व तेच सत्कार करण्यायोग्य असतात.

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    विषय

    कोण पशू आहे? पशु कुणाला म्हणावे?.-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - विद्या शिकण्यास इच्छुक हे मनुष्या, (अस्मिन्) या प्रत्यक्ष दिसणार्‍या भूलोकात (सः) तो (अग्निः) अग्नी (पशुः) पाहण्यास योग्य (पाहण्याचे मुख्य साधन) (आसीत) आहे. (तेन) त्या अग्नीने ज्याप्रमाणे या गुरूजन (अयजन्त) यज्ञ करतात, त्या प्रमाणे तू देखील यज्ञ करीत जा (तू यज्ञविधी शिकून घे) तसेच ज्याप्रमाणे (सं) तो विद्वान (एतम्) वा (लोकम्) दर्शनीय स्थानाला (आपल्या कुशल नीतीद्वारे (अयजत्) जिंकलो, तसे तूही प्रयत्न करून जग जिंकून घे (वा कार्यात यशस्वी हो) तू जर (तम्) त्या जगाला (जेष्यसि) (जेष्यसि) जिंकून घेशील, तर तो (अग्निः) अग्नि (वे) तुझ्यासाठी (लोक) दर्शनीय (भविष्यति) होईल (यज्ञ व अग्नी तुझे मार्गदर्शक होतील.) तू (एताः) या यज्ञाद्वारे शुद्ध केलेले (अपः) पाणी (पिब) पीत जा. (यस्मिन्) ज्या (जगात) (सः) तो (वायुः) वायू (पशुः) प्रेक्षणीय (आसीत्) आहे (प्रेक्षण व जीवनाचे कारण आहे) आणि ज्या वायूच्या साहाय्याने याज्ञिकजन (अयजन्त) यज्ञ करतात (तेन) त्या वायूच्या साहाय्याने तूदेखील यज्ञ कर (सः) तो विद्वान (एतम्) या वायुमंडळ (वातावरणात हवा) असलेल्या या (लोकम्) पृथ्वी लोकास (अयजत्) जिंकतो वा जिंकेल, त्याप्रमाणे तुही जगाला जिंकून घे. तू जर (तम्) त्या जगाला (जेष्यसि) जिंकशील, तर तो (वायुः) पवन (तो) तुझ्यासाठी (लोकः) दर्शनीय वा जीवीत राहण्यास योग्य (भविष्यति होईल. यामुळे तू (एताः) या (अपः) यज्ञाद्वारे शुद्ध केलेल्या प्राण रूप पवनाला (पिब) धारण कर (यज्ञाद्वारे वायुमंडळ शुद्ध कर) (यस्मित्) ज्या भूलोकात (सूर्य्यः) सूर्यमंडळ (पशुः) पाहण्यास योग्य (आसीत्) आहे (तेन) त्या सूर्याच्या सहाय्याने (अयजन्त) विद्वान वा याज्ञिकजन यज्ञ करतात, तसे तुही कर. तसेच ज्याप्रमाणे (सः) तो विद्वान (एतम्) या सूर्यमंडळाचे प्रसूतस्थान असलेल्या (लोकम्) या अंतरिक्षलोकाला (अजयत्) जिंकलो, तसे तूही जिंकून घे. जर तू त्या अंतरिक्षलोकाला (ज्येष्यसि) जिंकशील तर (सः) तो (सूर्यः) सूर्यमंडळ (ते) तुझ्यासाठी (लोकः) पाहण्यास आणि राहण्यास योग्य असा (भविष्यति) होईल. यामुळे तू (एताः) या यज्ञाद्वारे शुद्ध केलेल्या (अपः) जगात व्याप्त असलेल्या (प्रकाश, उष्णता, स्वच्छता आदी लाभ देणार्‍या) सूर्यप्रकाशाला (पिब) ग्रहण कर (त्यापासून आवश्यक लाभ घे) ॥17॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, सर्व यज्ञात अग्नी आदी पदार्थांनाच पशु जाणा-लक्षात ठेवा की कोणताही प्राणी या यज्ञात हिंसनीय वा वध्य नाहीं तसेच त्यास मारून यज्ञात होम करणेही अनुचित आहे. त्यामुळे हे नीट लक्षात घेऊन जे लोक यज्ञात सुगंधित आदी पदार्थ टाकून यज्ञ करतात, तर ते उत्तम पदार्थ पवन आणि सूर्यापर्यंत जाऊन तेथून वृष्टी द्वारा पृथ्वीवरील औषधी, प्राणादी वायू, शरीर आदीत प्रविष्ट होतात. अशाप्रकारे ते होम केलेले पदार्थ सर्व प्राण्यांना आनंदित करतात. हे यज्ञ कर्म करणारे लोक पुष्कळ पुण्य अर्जित करतात आणि ईश्‍वराची प्राप्ती करतात. त्यामुळे ते या जगात सत्कार-सम्मानाचे अधिकारी होतात ॥17॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O seeker after knowledge, in this world, fire is a thing of beauty. Just as learned persons perform yajnas with it, so shouldst thou do. Just as a learned person masters this beautiful place of sacrifice, so shouldst thou do. If thou wilt properly manage the place of yajna, fire will manifest itself as a thing worth seeing. Drink thou the waters purified by the yajna. Air is a thing of beauty. Just as learned persons perform yajnas with it, so shouldst thou do. Just as a learned person masters the atmosphere, the home of air, so shouldst thou do. If thou wilt master the atmosphere, air will look as a beautiful thing. Breathe thou the air purified by the yajna. Sun is a thing of beauty. The learned perform yajnas with its aid. Just as a learned person acquires full knowledge about the sun, so shouldst thou do. If thou wilt do it, sun will appear as a beautiful thing unto thee. Enjoy thou the beams of the sun purified through the yajna, and reigning in the universe.

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    Meaning

    Agni, fire, is the soul of yajna, a direct participant. The divines perform yajna with agni. Who ever does the yajna with agni wins the sphere where agni is supreme. The same will become your sphere too, you would conquer it if you do yajna. Drink deep at the fount of knowledge and joy purified by agni. Vayu, wind, is the soul of yajna, a seer and participant. The divines perform yajna by vayu. Whoever does the yajna by vayu wins the sphere where vayu is supreme. The same will become your sphere too, you would conquer it if you do yajna. Drink deep at the fount of breath and energy purified by vayu. Surya, the sun, is the soul of yajna, a seer and participant. The divines perform yajna with the sun. Whoever does the yajna with the sun wins the sphere where the sun is supreme. The same will become your sphere too, you would win it if you do yajna. Drink deep at the fount of light and energy purified by the sun.

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    Translation

    The fire is an offering. With him (fire), they perform the sacrifice. He wins the world, in which the fire is. That world will be yours. You will win that. Drink these waters. (1) The wind is an offering. With him (wind), they perform the sacrifice. He wins that world, in which the wind is; That world will be yours. You will win that. Drink these waters. (2) The sun is an offering. With him (sun), they perform sacrifice. He wins that world, in which the sun is. That world will be yours. You will win that. Drink these waters. (3)

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ কে পশব ইত্যাহ ॥
    এখন পশুকে, এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্যাবোধ কামনাকারী পুরুষ ! (য়স্মিন্) যে দেখিবার যোগ্য লোক-লোকান্তরে (সঃ) সে (অগ্নিঃ) অগ্নি (পশুঃ) দেখিবার যোগ্য (আসীৎ) আছে (তেন) তদ্দ্বারা যে প্রকার যজ্ঞকারী (অয়জন্ত) যজ্ঞ করিবে সেই প্রকার তুমি যজ্ঞ কর যেমন (সঃ) সেই বিদ্বান্ (এতম্) এই (লোকম্) দেখিবার যোগ্য স্থানকে (অজয়ৎ) জয় করে সেইরূপ ইহাকে জয় কর যদি (তম) তাহাকে (জেষ্যসি) জিতিবে তাহা হইলে সে (অগ্নিঃ) অগ্নি (তে) তোমার (লোকঃ) দেখিবার যোগ্য (ভবিষ্যতি) হইবে ইহাতে তুমি (এতাঃ) এই যজ্ঞ দ্বারা শুদ্ধ কৃত (অপঃ) জলকে (পিব) পান কর (য়স্মিন্) যাহাতে (সঃ) সে (বায়ুঃ) পবন (পশুঃ) দেখিবার যোগ্য (আসীৎ) আছে এবং যাহাতে যজ্ঞ কর্মকারী (অয়জন্ত) যজ্ঞ করিবে (তেন) তদ্দ্বারা তুমি যজ্ঞ কর যেমন (সঃ) সে বিদ্বান্ (এতম্) এই বায়ুমন্ডলের থাকার (লোকম্) লোককে (অজয়ৎ) জিতিবে সেইরূপ তুমি জয় কর যাহা (তম্) তাহাকে (জেষ্যসি) জিতিবে তাহা হইলে সে (বায়ুঃ) পবন (তে) তোমার (লোকঃ) দেখিবার যোগ্য (ভবিষ্যতি) হইবে ইহাতে তুমি (এতাঃ) এই সব (অপঃ) যজ্ঞ দ্বারা শুদ্ধকৃত প্রাণরূপী পবনগুলিকে (পিব) ধারণ কর (য়স্মিন্) যন্মধ্যে সে (সূর্য়্যঃ) সূর্য্যমন্ডল (পশুঃ) দেখিবার যোগ্য (আসীৎ) আছে (তেন) তদ্দ্বারা (অজয়ন্ত) যজ্ঞ কর্মকারী যজ্ঞ করিবে যেমন (সঃ) সেই বিদ্বান্ (এতম্) এই সূর্য্য মণ্ডলের স্থির থাকার (লোকম্) লোককে (অজয়ৎ) জিতিয়া লয় তদ্রূপ তুমিও জয়কর, তুমি যদি (তম্) তাহাকে (জেষ্যসি) জিতিবে তাহা হইলে (সঃ) সে (সূর্য়ঃ) সূর্য্যমণ্ডল (তে) তোমার (লোকঃ) দেখিবার যোগ্য (ভবিষ্যতি) হইবে ইহাতে তুমি (এতাঃ) যজ্ঞ দ্বারা শুদ্ধকৃত (অপঃ) সংসারে ব্যাপ্ত হওয়া সূর্য্য প্রকাশকে (পিব) গ্রহণ কর ॥ ১৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! সকল যজ্ঞে অগ্নি ইত্যাদিকেই পশু জানিবে কিন্তু প্রাণী এই যজ্ঞে বধ যোগ্য নহে, না হোম করিবার যোগ্য, যাহারা এমন জানিয়া সুগন্ধী ইত্যাদি উত্তম উত্তম পদার্থগুলিকে ভালমত নির্মাণ করিয়া অগ্নি হোম করে তাহারা পবন ও সূর্য্যকে প্রাপ্ত হইয়া বর্ষার দ্বারা তথা হইতে মুক্ত হইয়া ওষধি, প্রাণ, শরীর ও বুদ্ধিকে ক্রমপূর্বক প্রাপ্ত হইয়া সকল প্রাণীকে আনন্দ দান করে । এই যজ্ঞকর্মকারী পুণ্যের আধিক্যে পরমাত্মাকে প্রাপ্ত হইয়া সৎকারযুক্ত হইয়া থাকে ॥ ১৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নিঃ প॒শুরা॑সী॒ৎ তেনা॑য়জন্ত॒ সऽএ॒তং লো॒কম॑জয়॒দ্ য়স্মি॑ন্ন॒গ্নিঃ স তে॑ লো॒কো ভ॑বিষ্যতি॒ তং জে॑ষ্যসি॒ পিবৈ॒তাऽঅ॒পঃ । বা॒য়ুঃ প॒শুরা॑সী॒ৎ তেনা॑য়জন্ত॒ সऽএ॒তং লো॒কম॑জয়॒দ্ য়স্মি॑ন্ বা॒য়ুঃ স তে॑ লো॒কো ভ॑বিষ্যতি॒ তং জে॑ষ্যসি॒ পিবৈ॒তাऽঅ॒পঃ । সূর্য়ঃ॑ প॒শুরা॑সী॒ৎ তেনা॑য়জন্ত॒ সऽএ॒তং লো॒কম॑জয়॒দ্ য়স্মি॒ন্ৎসূর্য়্যঃ॒ স তে॑ লো॒কো ভ॑বিষ্যতি॒ তং জে॑ষ্যসি॒ পিবৈ॒তাऽঅ॒পঃ ॥ ১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নিরিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো দেবতাঃ । অগ্নিরিত্যস্য বায়ুরিত্যস্য সূর্য় ইত্যস্য চ সর্বেষাং পংক্তিশ্ছন্দঃ । সর্বত্র পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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