यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 26
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - श्रीर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
310
ऊ॒र्ध्वामे॑ना॒मुच्छ्रा॑पय गि॒रौ भा॒रꣳ हर॑न्निव। अथा॑स्यै॒ मध्य॑मेधता शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व॥२६॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वाम्। ए॒ना॒म्। उत्। श्रा॒प॒य॒। गि॒रौ। भा॒रम्। हर॑न्नि॒वेति॒ हर॑न्ऽइव। अथ॑। अ॒स्यै॒। मध्य॑म्। ए॒ध॒ता॒म्। शी॒ते। वाते॑ पु॒नन्नि॒वेति॑ पु॒नन्ऽइ॑व ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वमेनामुच्छ्रापय गिरौ भारँ हरन्निव । अथास्य मध्यमेधताँ शीते वाते पुनन्निव ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्ध्वाम्। एनाम्। उत्। श्रापय। गिरौ। भारम्। हरन्निवेति हरन्ऽइव। अथ। अस्यै। मध्यम्। एधताम्। शीते। वाते पुनन्निवेति पुनन्ऽइव॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजपुरुषः कामुत्कृष्टां कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
हे राजन्! त्वं गिरौ भारं हरन्निवैनामूर्ध्वामुच्छ्रापय। अथास्यै मध्यं प्राप्य शीते वाते पुनन्निव भवानेधताम्॥२६॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वाम्) उत्कृष्टाम् (एनाम्) राज्यश्रिया युक्तां प्रजाम् (उत्) (श्रापय) ऊर्ध्वं नय (गिरौ) पर्वते (भारम्) (हरन्निव) (अथ) (अस्यै) अस्याः (मध्यम्) (एधताम्) वर्द्धताम् (शीते) (वाते) वायौ (पुनन्निव) पृथक् कुर्वन्निव॥२६॥ ऊर्ध्वामेनामुच्छ्रापयेति। श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः श्रियमेवास्मै राष्ट्रमूर्ध्वमुच्छ्रयति गिरौ भारꣳ हरन्निवेति। श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः श्रियमेवास्मै राष्ट्र संनह्यत्यथो श्रियमेवास्मिन् राष्ट्रमधिनिदधाति। अथास्यै मध्यमेधतामिति श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्य श्रियमेव राष्ट्रे मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति शीते वाते पुनन्निवेति। क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतं क्षेममेवास्मै करोति॥ (शत॰३।१।२। ३। ४)
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। यथा कश्चिद् भारवाट् शिरसि पृष्ठे वा भारमुत्थाप्य गिरिमारुह्योपरि स्थापयेत् तथा राजा श्रियमुन्नतिभावं नयेत्। यथा वा कृषीवला बुसादिभ्योऽन्नं पृथक्कृत्य भुक्त्वा वर्द्धन्ते, तथा सत्यन्यायेन सत्यासत्ये पृथक्कृत्य न्यायकारी राजा नित्यं वर्द्धते॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजपुरुष किसकी उन्नति करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजन्! तू (गिरौ) पर्वत पर (भारम्) भार (हरन्निव) पहुंचाते हुए के समान (एनाम्) इस राज्यलक्ष्मीयुक्त (ऊर्ध्वाम्) उत्तम कक्षा वाली प्रजा को (उच्छ्रापय) सदा अधिक-अधिक उन्नति दिया कर (अथ) अब (अस्यै) इस प्रजा के (मध्यम्) मध्यभाग लक्ष्मी को पाकर (शीते) शीतल (वाते) पवन में (पुनन्निव) खेती करने वालों की क्रिया से जैसे अन्न आदि शुद्ध हो वा पवन के योग से जल स्वच्छ हो, वैसे आप (एधताम्) वृद्धि को प्राप्त हूजिये॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। राजा जैसे कोई बोझा ले जाने वाला, अपने शिर वा पीठ पर बोझा को उठा, पर्वत पर चढ़, उस भार को ऊपर स्थापन करे, वैसे लक्ष्मी को उन्नति होने को पहुँचावे वा जैसे खेती करने वाले भूसा आदि से अन्न को अलग कर उस अन्न को खाके बढ़ते हैं, वैसे सत्य न्याय से सत्य असत्य को अलग कर न्याय करने हारा राजा नित्य बढ़ता है॥२६॥
विषय
पर्वत पर बोझा ढोने वाले के समान राष्ट्रभार के उठानेवाले की जिम्मेवारी और वायुवेग से छाज द्वारा अन्नशोधन करने वाले के समान राष्ट्र का कण्टकशोधन | दम्पति पक्ष में गृहस्थ पुरुष के उत्तम कर्तव्य ।
भावार्थ
( गिरौ) पर्वत पर ( भारम् ) भार को, (हरन् इव) उठा ले जाने वाला पुरुष जिस प्रकार उसे ऊपर ले जाता है ( एनाम् ) इस प्रजा, पृथ्वी के शासन भार को (ऊर्ध्वाम् ) उन्नत पद पर (उत: श्रापय) उठा, उन्नत कर । (अथ) और (अस्यै) इस राष्ट्र प्रजा का ( मध्यम् ) मध्य भाग, बीच का, राजधानी का भाग ( एधताम् ) बढ़े, समृद्ध हो । (शीते वाते) शीतल वायु में जैसे किसान अन्न को छाज से गिरा-गिरा कर साफ करता है और वायु के बल से तुषों को दूर करता है और स्वच्छ अन्न की ढेरी को बढ़ाता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी (शीते वाते) शीत अर्थात् बढ़े हुए रक्षाकारी वायु के समान प्रचण्ड बल पर राष्ट्र को पवित्र कर, उसे दुष्ट पुरुषों से रहित कर । (२) दम्पति के पक्ष में- ( एनाम् ऊर्ध्वम् उत् श्रापय) इस स्त्री को तू उच्च पद पर स्थापित कर, हे पुरुष ! तू (गिरौ भारं हरन् इव ) पर्वत पर बोझा उठाकर लेजाने हारे के समान विशेष उत्तरदायित्व का भार उठा रहा है। इसका मध्य भाग, गर्भाशय, पुत्र, सन्तान आदि वृद्धि को प्राप्त हो तब तू अन्न को साफ करने वाले के समान (शीते) वृद्धिकारी और (बाते) पवित्र पदार्थों के आधार पर अपने आचार व्यवहार को पवित्र रख और बालक पर उत्तम संस्कार डाल । स्त्री के गर्भिणी होने के काल में पुरुष को भी संयम से रहना चाहिये । उसको 'शीत' अर्थात् वृद्धिकर, पुष्टिप्रद और पवित्र पदार्थों से पुष्ट करे 'शीतम्' – श्यैङ् वृद्धौ । भ्वादिः । श्रीर्वैराष्ट्रस्य भारः । श्रीर्वैराष्ट्रस्य मध्यम् । क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतम् । श० ३।३।१-४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रीर्देवता। अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
राज-कर्त्तव्य त्रयी
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में राजा व प्रजा को राष्ट्र के माता-पिता के रूप में चित्रित किया है। प्रस्तुत मन्त्र में राजा के लिए कहते हैं कि हे राजन् ! (गिरौ भारं हरन् इव) = पर्वत पर भार को ले जानेवाले की भाँति तू (एनाम्) = इस प्रजा को (ऊर्ध्वाम्) = ऊपर, उन्नत स्थिति में, (उच्छ्रापय) = उठाकर उन्नत कर । 'पर्वत पर भार ले जानेवाले की भाँति उच्छ्रित कर इस उपमा में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। [क] एक तो यह कि पर्वत पर चढ़ना ही कठिन है और भार लेकर ऊपर जाना तो बहुत ही कठिन है। इसी प्रकार प्रजा को उन्नत करना, अर्थात् राजकर्त्तव्य को निभाना कोई सुगम कार्य नहीं है, [ख] दूसरा यह कि भार को ऊपर ले-जानेवाला स्वयं तो ऊपर पहुँचता ही है, इसी प्रकार प्रजा को उन्नत करनेवाला राजा भी नैतिक दृष्टिकोण से उन्नत होता है। २. हे राजन् ! इस प्रजा की उन्नति का, शिक्षित करने का परिणाम यह हो कि (अथ) = अब (अस्यै) = इस प्रजा के लिए (मध्यम्) = [श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्यम्-श० ३।३।१।४] श्री = धनसम्पत्ति (एधताम्) = बढ़े। किसी भी राष्ट्र में प्रजा की स्थिति का अच्छा होना मूलरूप से उसकी श्री के विकास से ही आँका जाता है। ३. तू इस प्रजा को (शीते) = [श्येङ् वृद्धौ] बढ़ी हुई (वाते) = वायु में (पुनन् इव) = भूसे से गेहूँ को पृथक् करते हुए की भाँति हो। जैसे बढ़ी हुई वायु में कोई भी अन्न को गाहनेवाला छाज से फटकता है और भूसे को गेहूँ से पृथक् कर देता है। उसी प्रकार तू प्रजाओं से आर्य और दस्युओं को पृथक्-पृथक् करनेवाला हो। राजा ने यह दस्यु व आर्यों का अलग-अलग जानने की क्रिया 'शीते वाते' = शान्त गति के द्वारा करनी है। प्रजा में अन्याय व अनुचित दण्ड के भय की उद्विग्नता न छा जाए।
भावार्थ
भावार्थ - राजा के तीन मौलिक कर्त्तव्य हैं [क] प्रजा की स्थिति को उन्नत करना, उसमें शिक्षा आदि का प्रसार करना, [ख] इसके श्री का विकास करना व [ग] आर्य और दस्युओं को अलग-अलग जानना ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे एखादा भारवाहक आपल्या डोक्यावर किंवा पाठीवर भार घेऊन पर्वतावर चढतो व तेथे भार ठेवतो. तशी राजाने लक्ष्मी हळूहळू वाढवावी किंवा जसे शेतकरी धान्याचा भूसा वेगळा करून ते अन्न खातात. तसे न्यायमार्गाने सत्यासत्य वेगवेगळे करून न्याय करणारा राजा सदैव उन्नत होतो.
विषय
राजपुरूषांनी कोणाची उन्नती करावी, या विषयी.-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (राजन्) ज्याप्रमाणे एक श्रमिक (गिरौ) पर्वतावर चढताना (भारम्) पाठीवरील ओझ्याला (हरन्निव) वर-वर नेतो (त्याची उन्नती करतो) तद्वत (एनाम्) या राज्यलक्ष्मीयुक्त (धनसंपन्न वा शासनातील पदावर आरूढ असा) (ऊर्ध्वम्) उत्तम स्तरावरील प्रजाजनांना (उच्छ्रापय) नेहमी अधिकाधिक उत्कर्षाप्रत कन्या (अथ) त्यानंतर वा तसेच (अस्यै) या प्रजेच्या मध्यम (मध्यम वर्गाने) प्राप्त केलेल्या लक्ष्मी-धनसंपदेची (देखील वृद्धी करा) जसे (शीते) शीतल व हळू हळू वाहणार्या (वाते) हवेत (पुनन्निव) शेतकरी धान्य ओसावतात (त्या धान्याला वरून भूमीवर टाकून भूस व धान्य वेगळे करतात) तसे व हे राजन्, तुम्ही मध्यमवर्गातील संपन्न गृहस्थायीच्या संपदेचाही (एधताम्) वृद्धी वा उन्नती करा. ॥26॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात दोन उपमा अलंकार आहेत. जसा एक भारवाहक मजुर डोक्यावर वा पाठीवर ओझे उचलून ते ओझे वर नेऊन ठेवतो, त्याप्रमाणे राजाने धनाची उन्नती साधली पाहिजे. तसेच ज्याप्रमाणे शेतकरी धान्यातील भुसा वेगळा करून चांगल्या धान्याचे सेवन करून पुष्ट होतात, तद्वत राजाने सत्याने वागून असत्यापासून सत्य ते शोधावे आणि न्यायाने वागावे. असे वागणारा राजा नित्य उन्नती करीत जातो ॥26॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O king, like the man taking a load up to the mountain, always lift up these excellent subjects of thine full of sovereign wealth. Having acquired these precious subjects attain to prosperity, just as an agriculturist in a cool breeze separates corn from the chaff and improves physically by its use.
Meaning
Ruler of the land, lead this rising nation to the heights of beauty and prosperity like a mountaineer bearing his banner to the top of the mount, and, in the midst of this people, being sanctified as if in the cool mountain breezes, move on higher and ever higher.
Translation
O administrator, may you carry these subjects upwards like a man carrying a load up the mountain and then may you prosper among them like a man winnowing in a cool breeze. (1)
Notes
Lift her up just as a man carries weight on a mountain (so that her female organ opens wide. ). Thereafter let her middle portion agitate like that of a person husking his grain in a cold wind.
बंगाली (1)
विषय
পুনা রাজপুরুষঃ কামুৎকৃষ্টাং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ রাজপুরুষ কাহার উন্নতি করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজন্ ! (গিরৌ) পর্বতোপরি (ভারম্) ভার (হরন্নিব) পৌঁছানোর সমান (এনাম্) এই রাজ্যলক্ষ্মীযুক্ত (ঊর্ধ্বাম্) উত্তম শ্রেণিযুক্ত প্রজাকে (উচ্ছ্রাপয়) সর্বদা অধিক অধিক উন্নতি করিতে থাকুন (অথ) এখন (অস্যৈ) এই প্রজার (মধ্যম্) মধ্যভাগ লক্ষ্মীকে পাইয়া (শীতে) শীতল (বাতে) পবনে (পুনন্নিব) কৃষি কর্মকারীদের ক্রিয়া দ্বারা যেমন অন্নাদি শুদ্ধ হয় অথবা পবনের যোগ দ্বারা জল স্বচ্ছ হয়, সেইরূপ আপনি (এধতাম্) বৃদ্ধি প্রাপ্ত হউন ॥ ২৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে দুইটি উপমালঙ্কার আছে । রাজা যেমন কোন ভারবাহী নিজ শির বা পিঠের উপর ভার উঠাইয়া পর্বতোপরি চড়িয়া সেই ভারকে উপরে স্থাপন করে সেইরূপ লক্ষ্মীর উন্নতি উপস্থিত করাইয়া বা যেমন কৃষিকর্মকারী ভূষি আদিকে অন্ন হইতে পৃথক করিয়া সেই অন্নকে খাইয়া বৃদ্ধি পায় সেইরূপ সত্য ন্যায় দ্বারা সত্যাসত্যকে পৃথক করিয়া ন্যায়কারী রাজা নিত্য বৃদ্ধি পায় ॥ ২৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঊ॒র্ধ্বামে॑না॒মুচ্ছ্রা॑পয় গি॒রৌ ভা॒রꣳ হর॑ন্নিব ।
অথা॑স্যৈ॒ মধ্য॑মেধতাᳬं শী॒তে বাতে॑ পু॒নন্নি॑ব ॥ ২৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঊর্ধ্বমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । শ্রীর্দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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