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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 64
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    होता॑ यक्षत् प्र॒जाप॑ति॒ꣳ सोम॑स्य महि॒म्नः।जु॒षतां॒ पिब॑तु॒ सोम॒ꣳ होत॒र्यज॑॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। प्र॒जाप॑ति॒मिति॑ प्र॒जाऽप॑तिम्। सोम॑स्य। म॒हि॒म्नः। जु॒षता॑म्। पिब॑तु। सोम॑म्। होतः॑। यज॑ ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्प्रजापतिँ सोमस्य महिम्नः । जुषताम्पिबतु सोमँ होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। प्रजापतिमिति प्रजाऽपतिम्। सोमस्य। महिम्नः। जुषताम्। पिबतु। सोमम्। होतः। यज॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 64
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    पदार्थ -
    हे (होतः) दान देनेहारे जन! जैसे (होता) ग्रहीता पुरुष (सोमस्य) सब ऐश्वर्य से युक्त (महिम्नः) बड़प्पन के होने से (प्रजापतिम्) विश्व के पालक स्वामी की (यक्षत्) पूजा करे वा उस को (जुषताम्) सेवन से प्रसन्न करे और (सोमम्) सब उत्तम ओषधियों के रस को (पिबतु) पीवे, वैसे तू (यज) उस की पूजा कर और उत्तम ओषधि के रस को पिया कर॥६४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे विद्वान् लोग इस जगत् में रचना आदि विशेष चिह्नों से परमात्मा की महिमा को जान के इस की उपासना करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी इस की उपासना करो, जैसे ये विद्वान् युक्तिपूर्वक पथ्य पदार्थों का सेवन कर नीरोग होते हैं, वैसे आप लोग भी हों॥६४॥

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