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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 46
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सूर्यादयो देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सूर्य्य॑ऽएका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुनः॑।अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत्॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य्यः॑। ए॒का॒की। च॒र॒ति॒। च॒न्द्रमाः॑। जा॒य॒ते॒। पुन॒रिति॒ऽपुनः॑। अ॒ग्निः। हि॒मस्य॑। भे॒ष॒जम्। भूमिः॑। आ॒वप॑न॒मित्या॒ऽवप॑नम्। म॒हत्॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यऽएकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निर्धिमस्य भेषजम्भूमिरावपनम्महत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य्यः। एकाकी। चरति। चन्द्रमाः। जायते। पुनरितिऽपुनः। अग्निः। हिमस्य। भेषजम्। भूमिः। आवपनमित्याऽवपनम्। महत्॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    हे जिज्ञासु जानने की इच्छा करने वाले पुरुष! (सूर्य्यः) सूर्यलोक (एकाकी) अकेला (चरति) स्वपरिधि में घूमता है। (चन्द्रमाः) आनन्द देने वाला चन्द्रमा (पुनः) फिर-फिर (जायते) प्रकाशित होता है। (अग्निः) पावक (हिमस्य) शीत का (भेषजम्) औषध और (महत्) बड़ा (आवपनम्) अच्छे प्रकार बोने का आधार कि जिस में सब वस्तु बोते हैं, (भूमिः) वह भूमि है॥४६॥

    भावार्थ - हे विद्वानो! सूर्य अपनी ही परिधि में घूमता है, किसी लोकान्तर के चारों ओर नहीं घूमता। चन्द्रादि लोक उसी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। अग्नि ही शीत का नाशक और सब बीजों के बोने को बड़ा क्षेत्र भूमि ही है, ऐसा तुम लोग जानो॥४६॥

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