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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 17
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒ग्निः प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॑न्न॒ग्निः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः। वा॒युः प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॑न् वा॒युः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः। सूर्यः॑ प॒शुरा॑सी॒त् तेना॑यजन्त॒ सऽए॒तं लो॒कम॑जय॒द् यस्मि॒न्त्सूर्य्यः॒ स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ताऽअ॒पः॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। अ॒ग्निः। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः। वा॒युः। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। वा॒युः। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः। सूर्यः॑। प॒शुः। आ॒सी॒त्। तेन॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। सः। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒ज॒य॒त्। यस्मि॑न्। सूर्य्यः॑। सः। ते॒। लो॒कः। भ॒वि॒ष्य॒ति॒। तम्। जे॒ष्य॒सि॒। पिब॑। ए॒ताः। अ॒पः ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँल्लोकमजयद्यस्मिन्नग्निः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैताऽअपः । वायुः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँल्लोकमजयद्यस्मिन्वायुः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैताऽअपः । सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त सऽएतँलोकमजयद्यस्मिन्त्सूर्यः स ते लोको भविष्यति तञ्जेष्यसि पिबैता अपः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। अग्निः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः। वायुः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। वायुः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः। सूर्यः। पशुः। आसीत्। तेन। अयजन्त। सः। एतम्। लोकम्। अजयत्। यस्मिन्। सूर्य्यः। सः। ते। लोकः। भविष्यति। तम्। जेष्यसि। पिब। एताः। अपः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    हे विद्याबोध चाहने वाले पुरुष! (यस्मिन्) जिस देखने योग्य लोक में (सः) वह (अग्निः) अग्नि (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है, (तेन) उससे जिस प्रकार यज्ञ करने वाले (अयजन्त) यज्ञ करें, उस प्रकार से तू यज्ञ कर। जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस (लोकम्) देखने योग्य स्थान को (अजयत्) जीतता है, वैसे इसको जीत, यदि (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो वह (अग्निः) अग्नि (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा, इससे तू (एताः) इन यज्ञ से शुद्ध किये हुए (अपः) जलों को (पिब) पी। (यस्मिन्) जिसमें (सः) वह (वायुः) पवन (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है और जिससे यज्ञ करने वाले (अयजन्त) यज्ञ करें (तेन) उससे तू यज्ञ कर। जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस वायुमण्डल के रहने के (लोकम्) लोक को (अजयत्) जीते, वैसे तू जीत, जो (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो वह (वायुः) पवन (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा। इससे तू (एताः) इन (अपः) यज्ञ से शुद्ध किये हुए प्राण रूपी पवनों को (पिब) धारण कर (यस्मिन्) जिसमें वह (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (पशुः) देखने योग्य (आसीत्) है, (तेन) उससे (अयजन्त) यज्ञ करने वाले यज्ञ करें, जैसे (सः) वह विद्वान् (एतम्) इस सूर्य्यमण्डल के ठहरने के (लोकम्) लोक को (अजयत्) जीतता है, वैसे तू जीत। जो तू (तम्) उसको (जेष्यसि) जीतेगा तो (सः) वह (सूर्यः) सूर्य्यमण्डल (ते) तेरा (लोकः) देखने योग्य (भविष्यति) होगा, इससे तू (एताः) यज्ञ से शुद्धि किये हुए (अपः) संसार में व्याप्त हो रहे सूर्यप्रकाशों को (पिब) ग्रहण कर॥१७॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! सब यज्ञों में अग्नि आदि को ही पशु जानो, किन्तु प्राणी इन यज्ञों में मारने योग्य नहीं, न होमने योग्य हैं। जो ऐसे जानकर सुगन्धि आदि अच्छे-अच्छे पदार्थों को भलीभांति बना, आग में होम करनेहारे होते हैं, वे पवन और सूर्य को प्राप्त होकर वर्षा के द्वारा वहां से छूट कर ओषधि, प्राण, शरीर और बुद्धि को क्रम से प्राप्त होकर सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस यज्ञकर्म के करने वाले पुण्य की बहुताई से परमात्मा को प्राप्त होकर सत्कारयुक्त होते हैं॥१७॥

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