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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विद्युदादयो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    द्यौरा॑सीत् पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ऽआसीद् बृ॒हद्वयः॑। अवि॑रासीत् पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत् पिशङ्गि॒ला॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौः। आ॒सी॒त्। पू॒र्वचि॑त्ति॒रिति॑ पू॒र्वऽचि॑त्तिः। अश्वः॑। आ॒सी॒त्। बृ॒हत्। वयः॑। अविः॑। आ॒सी॒त्। पि॒लि॒प्पि॒ला। रात्रिः॑। आ॒सी॒त्। पि॒श॒ङ्गि॒ला ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौरासीत्पूर्वचित्तिः अश्वऽआसीद्बृहद्वयः । अविरासीत्पिलिप्पिला रात्रिरासीत्पिशङ्गिला ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौः। आसीत्। पूर्वचित्तिरिति पूर्वऽचित्तिः। अश्वः। आसीत्। बृहत्। वयः। अविः। आसीत्। पिलिप्पिला। रात्रिः। आसीत्। पिशङ्गिला॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    हे जानने की इच्छा करने वालो! (पूर्वचित्तिः) प्रथम स्मृति का विषय (द्यौः) दिव्यगुण देने हारी वर्षा (आसीत्) है, (बृहत्) बड़े (वयः) उड़ने हारे (अश्वः) मार्गों को व्याप्त होने वाले पक्षी के तुल्य अग्नि (आसीत्) है, (पिलिप्पिला) वर्षा से पिलिपिली चिकनी शोभायमान (अविः) अन्नादि से रक्षा आदि उत्तम गुण प्रगट करने वाली पृथिवी (आसीत्) है और (पिशङ्गिला) प्रकाशरूप को निगलने अर्थात् अन्धकार करने हारी (रात्रिः) रात (आसीत्) है, यह तुम जानो॥१२॥

    भावार्थ - हवन और सूर्य रूपादि अग्नि के ताप से सब गुणों से युक्त अन्नादि से संसार की स्थिति करने वाली वर्षा होती है। उस वर्षा से सब ओषधि आदि उत्तम पदार्थ युक्त पृथिवी होती और सूर्य्य रूप अग्नि से ही प्राणियों के विश्राम के लिये रात्रि होती है॥१२॥

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