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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 42
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अध्यापको देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    दैव्या॑ऽअध्व॒र्यव॒स्त्वाच्छ्य॑न्तु॒ वि च॑ शासतु।गात्रा॑णि पर्व॒शस्ते॒ सिमाः॑ कृण्वन्तु॒ शम्य॑न्तीः॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्याः॑। अ॒ध्व॒र्यवः॑। त्वा॒। आ। छ्य॒न्तु॒। वि। च॒। शा॒स॒तु॒। गात्रा॑णि। प॒र्व॒श इति॑ पर्व॒ऽशः। ते। सिमाः॑। कृ॒ण्व॒न्तु॒। शम्य॑न्तीः ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्याऽअध्वर्यवस्त्वाच्छ्यन्तु वि च आसतु । गात्राणि पर्वशस्ते सिमाः कृण्वन्तु शम्यन्तीः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्याः। अध्वर्यवः। त्वा। आ। छ्यन्तु। वि। च। शासतु। गात्राणि। पर्वश इति पर्वऽशः। ते। सिमाः। कृण्वन्तु। शम्यन्तीः॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 42
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    पदार्थ -
    हे विद्यार्थी वा विद्यार्थिनी! (दैव्याः) विद्वानों में कुशल (अध्वर्यवः) अपनी रक्षारूप यज्ञ को चाहते हुए अध्यापक उपदेशक लोग (त्वा) तुझे (वि, शासतु) विशेष उपदेश दें (च) और (ते) तेरे दोषों का (आ, छ्यन्तु) विनाश करें (पर्वशः) सन्धि-सन्धि से (गात्राणि) अङ्गों को परखें (सिमाः) प्रेम से बँधी हुई (शम्यन्तीः) दुष्ट स्वभाव को दूर करती हुई माता आदि सती स्त्रियां भी ऐसी ही शिक्षा (कृण्वन्तु) करें॥४२॥

    भावार्थ - अध्यापक, उपदेशक और अतिथि लोग जब बालकों को सिखलावें तब दोषों का विनाश कर उनको विद्या की प्राप्ति करावें, ऐसे पढ़ाने और उपदेश करने वाली स्त्री भी कन्याओं के प्रति आचरण करें और वैद्यक शास्त्र की रीति से शरीर के अङ्गों की अच्छे प्रकार परीक्षा कर औषधि भी देवें॥४२॥

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