यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 17
ऋषिः - लुशो धानाक ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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म॒होऽअ॒ग्नेः स॑मिधा॒नस्य॒ शर्म॒ण्यना॑गा मि॒त्रे वरु॑णे स्व॒स्तये॑। श्रेष्ठे॑ स्याम सवि॒तुः सवी॑मनि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ऽअ॒द्या वृ॑णीमहे॥१७॥
स्वर सहित पद पाठम॒हः। अ॒ग्नेः। स॒मि॒धा॒नस्येति॑ सम्ऽइधा॒नस्य॑। शर्म॑णि। अना॑गाः। मि॒त्रे। वरु॑णे। स्व॒स्तये॑ ॥ श्रेष्ठे॑। स्या॒म॒। स॒वि॒तुः। सवी॑मनि। तत्। दे॒वाना॑म्। अवः॑। अ॒द्य। वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महोऽअग्नेः समिधानस्य शर्मण्यनागा मित्रे वरुणे स्वस्तये । श्रेष्ठे स्याम सवितुः सवीमनि तद्देवानामवोऽअद्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठ
महः। अग्नेः। समिधानस्येति सम्ऽइधानस्य। शर्मणि। अनागाः। मित्रे। वरुणे। स्वस्तये॥ श्रेष्ठे। स्याम। सवितुः। सवीमनि। तत्। देवानाम्। अवः। अद्य। वृणीमहे॥१७॥
विषय - निष्पापता व कल्याण
पदार्थ -
१. (महः अग्नेः) = उस महान्, अग्निवत् प्रकाशमय, दोषों के दहन करनेवाले प्रभु के (समिधानस्य) = जिसे हमने अपने हृदयान्तरिक्ष में समिद्ध किया है, (शर्मणि) = शरण में (अनागाः) = हम निष्पाप बनते हैं। जिस समय हम प्रभु को अपने हृदयों में देखते हैं तो हमारा जीवन निष्पाप और हो जाता है। क्या हम प्रभु के समीप पाप करेंगे? २. (मित्रे) = स्नेह की भावना होने पर, (वरुणे) = द्वेष का निवारण करके हम (स्वस्तये) = उत्तम स्थिति के लिए होते हैं। मानवकल्याण तभी होता है जब द्वेष समाप्त हो जाए और प्रेम का प्रसार हो। ईर्ष्या-द्वेष मनुष्य के मन को जलाते रहते हैं । ३. द्वेषों से ऊपर उठकर सदा प्रेम में रहने के लिए आवश्यक है कि हम (सवितुः) = प्रेरक प्रभु की (श्रेष्ठे सवीमनि) = श्रेष्ठ प्रेरणा में (स्याम) = हों । अन्तःस्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे तो हम द्वेष से अवश्य दूर रहने का प्रयत्न करेंगे और सभी के साथ प्रेम से चल पाएँगे। ४. (तत्) = उस प्रेरणा को सुनने के द्वारा (देवानाम्) = देवों के (अवः) = रक्षण को (अद्य) = आज ही (वृणीमहे) = हम वरते हैं। जो प्रभु प्रेरणा को सुनता है, वह सब वासनाओं से अपनी रक्षा कर पाता है। सब प्राकृतिक देव उसके अनुकूल होते हैं। ५. प्रभु की शरण में निष्पापता को सिद्ध करनेवाला, प्रेम व द्वेषाभाव से कल्याणी स्थितिवाला, सदा प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला और देवरक्षण का वरण करनेवाला, यह ऋषि अपने को सब वासनाओं से मुक्त करनेवाला [ Loose to release] और सद्गुणों से अपने को अलंकृत करनेवाला [लूष् to adorn] 'लुश:' नामवाला होता है और सब प्रकार से अपना धारण करनेवाला यह अपने में गुणों का आधान करता हुआ 'धानाक:' कहलाता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम निष्पाप बनें, कल्याण प्राप्त करें, प्रभु प्रेरणा में चलें, देवरक्षण को वरें ।
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