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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 44
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र वा॑वृजे सुप्र॒या ब॒र्हिरे॑षा॒मा वि॒श्पती॑व॒ बीरि॑टऽइयाते।वि॒शाम॒क्तोरु॒षसः॑ पू॒र्वहू॑तौ वा॒युः पू॒षा स्व॒स्तये॑ नि॒युत्वा॑न्॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। वा॒वृ॒जे। व॒वृ॒जे॒ऽइति॑ ववृजे। सु॒ऽप्र॒या इति॑ सुप्र॒याः। ब॒र्हिः। ए॒षा॒म्। आ। वि॒श्पती॑व। वि॒श्पती॒वेति॑ वि॒श्पती॑ऽइव। बीरि॑टे। इ॒या॒ते॒ ॥ वि॒शाम्। अ॒क्तोः। उ॒षसः॑। पू॒र्वहू॑ता॒विति॑ पू॒र्वऽहू॑तौ। वा॒युः। पू॒षा। स्व॒स्तये॑। नि॒युत्वा॑न् ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वावृजे सुप्रया बर्हिरेषामा विश्पतीव बीरिटऽइयाते । विशामक्तोरुषसः पूर्वहूतौ वायुः पूषा स्वस्तये नियुत्वान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वावृजे। ववृजेऽइति ववृजे। सुऽप्रया इति सुप्रयाः। बर्हिः। एषाम्। आ। विश्पतीव। विश्पतीवेति विश्पतीऽइव। बीरिटे। इयाते॥ विशाम्। अक्तोः। उषसः। पूर्वहूताविति पूर्वऽहूतौ। वायुः। पूषा। स्वस्तये। नियुत्वान्॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि वसिष्ठ है, उत्तम निवासवाला। इसके जीवन की निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं - १. (प्रवावृजे) = यह वासनाओं का स्वयं ही वर्जन करता है, काम-क्रोध आदि का अपने को शिकार नहीं होने देता। २. (सुप्रया) = इस उद्देश्य से यह सात्त्विक अन्नवाला होता है, अथवा उत्तम प्रयत्नवाला होता है [ प्रयस् अन्न, प्रयत्न ] ३. (एषां बर्हिः) = इसी से इनका हृदय बर्हि बनता है, जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है तथा जो अत्यन्त बृंहित = बढ़ा हुआ, विशाल बना है। ४. (आविश्पती इव) = यह समन्तात् प्रजाओं का रक्षक-सा बनता है। विशाल व निर्वासन हृदयवाला बनकर यह सभी का हित साधन करता है। ५. ऐसे अच्छे, आकर्षक [आकृष्णेन रोचनम् ] ढंग से प्रचार करता है कि यह (विशाम्) = प्रजाओं के (बीरिटे) = हृदयान्तरिक्ष में (इयाते) = पहुँच जाता है [Touches their heart], उनको अपनी बात अच्छी प्रकार हृदयंगम करा देता है। ४. (अक्तोः) = रात्रि के तथा (उषसः) = उषाकाल के (पूर्वहूतौ) = प्रथम पुकार में, अर्थात् सायं व प्रातः की प्रार्थना में यह आराधना करता हुआ कहता है कि मैं [क] (वायुः) = वायु की भाँति सदा गतिशील बनूँ, (पूषा) = सूर्य की भाँति सब प्रजाओं में प्राण का सञ्चार करूँ [ग] (नियुत्वान्) = 'नियुत्' शब्द वायु के घोड़ों के लिए प्रयुक्त होता है। जीवात्मा 'वायु' है ('वायुरनिलममृतम्')। इन्द्रियाँ उसके घोड़े हैं। मैं उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाला बनूँ। यह उत्तम इन्द्रियाँश्वोंवाला ही अपनी जीवन-यात्रा उत्तम ढंग से पूर्ण कर पाता है। इसप्रकार मैं (स्वस्तये) = उत्तम स्थिति के लिए होऊँ । मेरा कल्याण हो, मैं औरों का कल्याण करनेवाला बनूँ ।

    भावार्थ - भावार्थ- मेरा जीवन निर्वासन [वासनारहित], सात्त्विक व पवित्र हृदयवाला हो। मैं लोकसंग्रह करता हुआ लोगों के हृदयों तक पहुँचने का प्रयत्न करूँ। प्रात : - सायं यही आराधना करूँ कि मैं क्रियाशील, पोषण करनेवाला व उत्तम इन्द्रियोंवाला बनकर उत्तम स्थिति में होऊँ।

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