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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 87
    ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - निचृद् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    ऋध॑गि॒त्था स मर्त्यः॑ शश॒मे दे॒वता॑तये।यो नू॒नं मि॒त्रावरु॑णाव॒भिष्ट॑यऽआच॒क्रे ह॒व्यदा॑तये॥८७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋध॑क्। इ॒त्था। सः। मर्त्यः॑। श॒श॒मे। दे॒वता॑तये॒ इति॑ दे॒वऽता॑तये ॥ यः। नू॒नम्। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒भिष्ट॑ये। आ॒च॒क्रे इत्या॑ऽच॒क्रे। ह॒व्यदा॑तय॒ इति॑ ह॒व्यऽदा॑तये ॥८७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋधगित्था स मर्त्यः शशमे देवतातये । यो नूनम्मित्रावरुणावभिष्टयऽआचक्रे हव्यदातये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋधक्। इत्था। सः। मर्त्यः। शशमे। देवतातये इति देवऽतातये॥ यः। नूनम्। मित्रावरुणौ। अभिष्टये। आचक्रे इत्याऽचक्रे। हव्यदातय इति हव्यऽदातये॥८७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 87
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में कहा था कि हम 'इन्द्र और वायु' इन दोनों तत्त्वों को अपने जीवन में अपनाएँ। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का सूचक है, तो 'वायु' क्रियाशीलता का । (इत्था) = इस प्रकार इन दोनों को अपनाने से (ऋधक्) = सचमुच (सः मर्त्यः) = वह मनुष्य '(शशमे) = अपने शरीर में रोगों को शान्त करता है और मन में क्रोध को है। इस प्रकार यह अपने शरीर व मन को स्वस्थ करके (देवतातये) = दिव्य गुणों के विस्तार के लिए अपने को तैयार करता है। वस्तुतः स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन दिव्य गुणों के लिए एक उर्वरा भूमि है। २. ऐसा कर वह पाता है (यः) = जो (नूनम्) = निश्चय से (मित्रावरुणौ) = प्राणापान को (अभिष्टये) = शरीर व मानस रोगों पर आक्रमण के लिए आचक्रे नियत कर देता है, अर्थात् जो व्यक्ति प्राणसाधना करता है उसका शरीर भी स्वस्थ रहता है, मन भी निर्मल बना रहता है। इस प्रकार यह व्यक्ति (हव्यदातये) = कर्मफल के काटने के लिए होता है [दा लवने], अर्थात् कर्मबन्धन से ऊपर उठ पाता है। अभिष्टि=आक्रमण। प्राणापान शरीर के पहरेदार हैं, ये शरीर में आनेवाले रोग व मलों पर आक्रमण करते हैं। असुरों ने आक्रमण किया, परन्तु प्राणापान से टकराकर वे मिटी के ढेले के समान पत्थर से टकराकर चकनाचूर हो गये। ये मित्रावरुण 'प्राणापान' है, साथ ही ये 'स्नेह व द्वेष निवारण' की देवता हैं, ये मनुष्य को 'काम' से ऊपर उठाकर कर्मबन्धन से भी मुक्त करते हैं, अतः इन्हें 'हव्यदातये' कर्मबन्धन के विच्छेद के लिए सदा पहरेदार के रूप में नियुक्त करना उपयुक्त है। 'हव्यदातये' का अर्थ शतपथ के अनुसार 'यजमान' के लिए है। प्राणसाधना से काम पर विजय पाकर हम सच्चे यजमान बनते हैं। ३. ८५वें मन्त्र का ऋषि 'जमदग्नि' है, ८६वें का 'तापस' है और ८७ का 'जमदग्नि'। एवं जमदग्नि से प्रारम्भ है और जमदग्नि पर समाप्ति है, बीच में 'तापस' है। एवं, संकेत स्पष्ट हैं कि जमदग्नि ने यदि जमदग्नि बने रहना है तो आवश्यक है कि वह 'तापस' बना रहे, बच्चा जमदग्नि है, तीव्र जाठराग्निवाला है। यदि वह जीवन में तपस्वी बना रहेगा तो अन्त तक इसकी जठराग्नि भी बनी रहेगी । अन्यथा आराम का जीवन बिताता हुआ यह अपने विलास से जठराग्नि का विनाश तो कर ही बैठेगा और तब कितने ही रोग इसे आ घेरेंगे एवं, 'जमदग्नि, तापस, जमदग्नि' यह कितना सुन्दर क्रम है। जमदग्नि ऋषि के मन्त्रों को इकठा कर देने पर इस क्रम का महत्त्व विनष्ट हो जाता है, अतः वेद मन्त्रों का क्रम भी अपरिवर्तनीय-सा ही प्रतीत होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवन 'जमदग्नि, तापस, जमदग्नि' का जीवन हो।

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