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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 69
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    अद॑ब्धेभिः सवितः पा॒युभि॒ष्ट्वꣳ शि॒वेभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो॒ गय॑म्।हिर॑ण्यजिह्वः सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॒ रक्षा॒ माकि॑र्नोऽअ॒घश॑ꣳसऽ ईशत॥६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद॑ब्धेभिः। स॒वित॒रिति॑ सवितः। पा॒युभि॒रिति॑ पा॒युभिः॑। त्वम्। शि॒वेभिः॑। अ॒द्य। परि॑। पा॒हि॒। नः॒। गयम् ॥ हिर॑ण्यजिह्व इति॒ हिर॑ण्यऽजिह्वः। सु॒विताय॑। नव्य॑से। र॒क्ष॒। माकिः॑ नः॒। अ॒घशं॑सः। ई॒श॒त॒ ॥६९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदब्धेभिः सवितः पायुभिष्ट्वँ शिवेभिरद्य परि पाहि नो गयम् । हिरण्यजिह्वः सुविताय नव्यसे रक्षा माकिर्ना अघशँस ईशत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदब्धेभिः। सवितरिति सवितः। पायुभिरिति पायुभिः। त्वम्। शिवेभिः। अद्य। परि। पाहि। नः। गयम्॥ हिरण्यजिह्व इति हिरण्यऽजिह्वः। सुविताय। नव्यसे। रक्ष। माकिः नः। अघशंसः। ईशत॥६९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 69
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    पदार्थ -
    १. 'आदित्य ब्रह्मचारी लोगों को कल्याणी मति प्राप्त करानेवाले हों', इन शब्दों पर पिछला मन्त्र समाप्त हुआ था। वह आदित्य ब्रह्मचारी स्वयं अपने जीवन को सुन्दर बनाने के लिए प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (सवितः) = सारे संसार के जन्मदाता व प्रेरक प्रभो ! (त्वम्) = आप (अदब्धेभिः) = हिंसित न होनेवाले (शिवेभिः) = कल्याणकर (पायुभिः) = रक्षण के उपायों से (अद्य) = आज (नः) = हमारे (गयम्) = शरीर को (परिपाहि) = सर्वतः रक्षित कीजिए। जो स्वयं अस्वस्थ है वह औरों में स्वास्थ्य का प्रसार नहीं कर सकता। स्वास्थ्य के नियमों को भंग न करते हुए हम स्वस्थ बनें। २. हे प्रभो! आप (हिरण्यजिह्वः) = हितरमणीय जिह्वावाले हैं। आपकी वेदवाणी का एक-एक मन्त्र हमारा हितकर व रमणीय है। (रक्ष) = आप हमारी रक्षा कीजिए, जिससे हम (सुविताय) = सु-इत सदा उत्तम आचरण के लिए हों और (नव्यसे) = [नू स्तुतौ] सदा स्तुति करनेवाले हों। हमारा जीवन उपासनामय हो। आप 'हिरण्यजिह्व' हैं, आपका उपासक मैं भी हितरमणीय जिह्वावाला बनूँ। ३. हे प्रभो ! (नः) = हमपर (अघशंसः) = बुराइयों का शंसन करनेवाला (माकिः ईशत) = शासन करनेवाला न हो जाए, अर्थात् हम किसी अघशंस की बातों में न आ जाएँ। ४. प्रभु की कृपा से व्यसनों से बचकर अपने में शक्ति को भरनेवाला 'भरद्वाज' है। यह अपने जीवन में निम्न बातें लाता है- [क] स्वास्थ्य, [ख] मधुर भाषण व दीप्ति [ग] उत्तम आचरण, [घ] स्तवन, [ङ] बुराइयों के प्रति आकृष्ट न होना ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपने जीवनों में शक्ति भरके औरों में भी शक्ति का सञ्चार करनेवाले बनें।

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