यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 75
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
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आ रोद॑सीऽअपृण॒दा स्व॑र्म॒हज्जा॒तं यदे॑नम॒पसो॒ऽअधा॑रयन्।सोऽअ॑ध्व॒राय॒ परि॑ णीयते क॒विरत्यो॒ न वाज॑सातये॒ चनो॑हितः॥७५॥
स्वर सहित पद पाठआ। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। अ॒पृ॒ण॒त्। आ। स्वः॑। म॒हत्। जा॒तम्। यत्। ए॒न॒म्। अ॒पसः॑। अधा॑रयन् ॥ सः। अ॒ध्व॒राय॑। परि॑। नी॒य॒ते॒। क॒विः। अत्यः॑। न। वाज॑सातये॒ऽइति॒ वाज॑ऽसातये। चनो॑हित॒ऽइति॒ चनः॑ऽहितः ॥७५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोदसीऽअपृणदा स्वर्महज्जातन्यदेनमपसोऽअधारयन् । सोऽअध्वराय परिणीयते कविरत्यो न वाजसातये चनोहितः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। रोदसीऽइति रोदसी। अपृणत्। आ। स्वः। महत्। जातम्। यत्। एनम्। अपसः। अधारयन्॥ सः। अध्वराय। परि। नीयते। कविः। अत्यः। न। वाजसातयेऽइति वाजऽसातये। चनोहितऽइति चनःऽहितः॥७५॥
विषय - विश्वामित्र का स्वर्ग-निर्माण- प्रेम+कर्म-स्वर्ग
पदार्थ -
१. प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि विश्वामित्र है। यह सभी से स्नेह करता है, इसका किसी से भी द्वेष नहीं। (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सभी प्राणियों को (आ) = सर्वथा (अपृणत्) = यह सुखी करता है। यह किसी का बुरा नहीं चाहता। किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता। २. इसी का परिणाम है कि इसके लिए (महत् स्वः) = महनीय स्वर्ग (आजातम्) = उत्पन्न हो गया है। ईर्ष्या-द्वेष मानव-जीवन को नरक बनाते हैं। इनसे ऊपर उठे और नरक की समाप्ति हुई। विश्वामित्र का जीवन इसलिए स्वर्गमय रहता है कि ३. (यत्) = जो (एनम्) = इसको (अपसः) = कर्म (अधारयन्) = धारण करते हैं। 'अपस्' उन कर्मों का नाम है जो व्यापक हैं [अप् व्याप्तौ], जो केवल स्वार्थ के लिए नहीं किये गये । ४. यहाँ एक ओर विश्वप्रेम है, दूसरी ओर व्यापक कर्म हैं, इन दोनों के बीच में स्वर्ग है। वस्तुतः प्रेम हो, जीवन क्रियामय हो तो फिर स्वर्ग ही स्वर्ग होता है। स्वर्ग के निर्माण के लिए हाथों में कर्म व हृदय में प्रेम को धारण करना आवश्यक है। कर्मों की पवित्रता के लिए 'कवि' = क्रान्तदर्शी, तत्त्वज्ञानी बनना आवश्यक है। इसका उल्लेख अभी आगे करेंगे। ५. (सः) = वह विश्वामित्र (अध्वराय) = अहिंसामय कर्मों के लिए (परिणीयते) = ले जाया जाता है। सब देव तथा देवाधिपति प्रभु इसे अहिंसामय कर्मों में लगाते हैं । ६. यह विश्वामित्र (कविः) = कवि बनता है, क्रान्तदर्शी होता है। इसकी दृष्टि वस्तुतत्त्व को देखनेवाली होती है। ७. (अत्यः न) = निरन्तर क्रियाशील घोड़े की भाँति यह (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए होता है। जिस प्रकार अश्व [अश्नुते अध्वानम्] निरन्तर मार्ग का व्यापन करता है, अतः शक्तिशाली बना रहता है । ८. विश्वामित्र की अन्तिम विशेषता यह है कि यह 'चनोहितः ' अन्न पर आश्रित होता है। इसका जीवन 'शाकाहारी' होता है। यह परमांस से अपना मांस बढ़ाने का स्वप्न नहीं लेता। मांसाहार मनुष्य को क्रूर बनाता है, परन्तु यह तो सबसे प्रेम के मार्ग पर चलता है, अतः इसके जीवन में मांस का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सदा (चनः) = अन्न पर (हितः) = रक्खा हुआ होता है। यह अपने शरीरधारण के लिए अन्य शरीरों को समाप्त करने का विचार नहीं करता।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवन प्रेम व कर्म के समन्वय से स्वर्ग का निर्माण करनेवाला हो ।
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