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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 75
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    आ रोद॑सीऽअपृण॒दा स्व॑र्म॒हज्जा॒तं यदे॑नम॒पसो॒ऽअधा॑रयन्।सोऽअ॑ध्व॒राय॒ परि॑ णीयते क॒विरत्यो॒ न वाज॑सातये॒ चनो॑हितः॥७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। अ॒पृ॒ण॒त्। आ। स्वः॑। म॒हत्। जा॒तम्। यत्। ए॒न॒म्। अ॒पसः॑। अधा॑रयन् ॥ सः। अ॒ध्व॒राय॑। परि॑। नी॒य॒ते॒। क॒विः। अत्यः॑। न। वाज॑सातये॒ऽइति॒ वाज॑ऽसातये। चनो॑हित॒ऽइति॒ चनः॑ऽहितः ॥७५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोदसीऽअपृणदा स्वर्महज्जातन्यदेनमपसोऽअधारयन् । सोऽअध्वराय परिणीयते कविरत्यो न वाजसातये चनोहितः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। रोदसीऽइति रोदसी। अपृणत्। आ। स्वः। महत्। जातम्। यत्। एनम्। अपसः। अधारयन्॥ सः। अध्वराय। परि। नीयते। कविः। अत्यः। न। वाजसातयेऽइति वाजऽसातये। चनोहितऽइति चनःऽहितः॥७५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 75
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यद्यो विद्युद्रूपोऽग्नी रोदसी महज्जातं स्वश्चाऽऽपृणदेनमपस आधारयन् यश्च कविरध्वराय वाजसातये चात्यो न विद्वद्भिः परिणीयते स चनोहितोऽस्तीति यूयं विजानीत॥७५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपृणत्) पृणाति व्याप्नोति (आ) (स्वः) अन्तरिक्षम् (महत्) (जातम्) (यत्) (एनम्) (अपसः) कर्माणि (अधारयन्) धारयन्ति (सः) (अध्वराय) अहिंसाख्याय शिल्पमयाय यज्ञाय (परि) सर्वतः (नीयते) प्राप्यते (कविः) शब्दहेतुः (अत्यः) योऽतति व्याप्नोत्यध्वानं सोऽश्वः (न) इव (वाजसातये) वाजस्य वेगस्य संभजनाय (चनोहितः) चनसे पृथिव्याद्यन्नाय हितकारी। चन इत्यन्ननाम। (निरु॰६।१६)॥७५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरनेकविधैर्विज्ञानकर्मभिर्विद्युद्विद्यां लब्ध्वा भूम्यादिषु व्याप्तो विभाजकश्च साधितः सन् यानादीनां सद्यो गमयिताऽग्निः कार्येषूपयोक्तव्यः॥७५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यत्) जो विद्युत् रूप अग्नि (रोदसी) सूर्य-पृथिवी और (महत्) महान् (जातम्) प्रसिद्ध (स्वः) अन्तरिक्ष को (आ, अपृणत्) अच्छे प्रकार व्याप्त होता (एनम्) इस अग्नि को (अपसः) कर्म (आ, अधारयन्) अच्छे प्रकार धारण करते तथा जो (कविः) शब्द होने का हेतु अग्नि (अध्वराय) अहिंसा नामक शिल्पविद्या रूप यज्ञ के तथा (वाजसातये) वेग के सम्यक् सेवन के लिये (अत्यः) मार्ग को व्याप्त होनेवाले घोड़े के (नः) समान विद्वानों ने (परि, नीयते) प्राप्त किया है, (सः) वह (चनोहितः) पृथिवी आदि अन्न के लिये हितकारी है, ऐसा तुम लोग जानो॥७५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि अनेक प्रकार के विज्ञान और कर्मों से बिजुली रूप अग्नि की विद्या को प्राप्त हो, भूमि आदि में व्याप्त विभागकर्ता साधन किया हुआ यान आदि को शीघ्र पहँुचानेवाले अग्नि को कार्यों में उपयुक्त करें॥७५॥

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    भावार्थ

    सूर्य प्रकाश से आकाश और पृथिवी दोनों को व्याप लेता हैं उसी प्रकार तेजस्वी विद्वान्, पुरुष ( रोदसी) शास्य और शासक दोनों वर्गों को ( आ अपुणत् ) व्यापता और उनको पालन और पूर्ण भी करता है । वह (स्व:) अन्तरिक्ष को वायु के समान, ( महत् जातम् ) उत्पन्न हुए सुखमय बड़े राष्ट्र को भी वश करता है । (यत्) जिससे ( एनम् ) उसको (अपसः) समस्त कर्म, अथवा कार्य करने वाला प्रजाजन ( अधारयन् ) धारण करते हैं, वह सब कर्मों का आश्रय हो जाता है । (सः) उसको (कविः)क्रान्तदर्शी, दूरदर्शी पुरुष (अध्वराय) नष्ट न होने वाले, हिंसारहित, पालन करने के उत्तम कर्म के लिये (वाजसातये अत्य: न), संग्राम, ऐश्वर्य और वेगयुक्त कार्य करने के लिये अश्व के समान (परिणीयते) नियुक्त किया जाता है, वरण किया जाता है । वह (चनोहितः) अन्न आदि ऐश्वर्य को धारण करने वाला होता है । (२) अग्नि के पक्ष में- सूर्य रूप से द्यौ और पृथिवी को व्यापता, पोषता है । समस्त कर्मों को धारण करता है । हिंसारहित शिल्पों में और अश्व के समान यन्त्रों में भी वेग प्राप्त करने के लिये लगाया जाता है। (३) परमेश्वर भी सर्वत्र व्यापक, सबका पोषक है । समस्त कर्मो आश्रय है, वह क्रान्तदर्शी महान् यज्ञ के लिये पुनः-पुनः उपासना किया जाता एवं समस्त ऐश्वर्यो का पोषक है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः । विद्वान् वैश्वानरो देवता । निचृत् जगती । निषादः ॥

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    विषय

    विश्वामित्र का स्वर्ग-निर्माण- प्रेम+कर्म-स्वर्ग

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि विश्वामित्र है। यह सभी से स्नेह करता है, इसका किसी से भी द्वेष नहीं। (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सभी प्राणियों को (आ) = सर्वथा (अपृणत्) = यह सुखी करता है। यह किसी का बुरा नहीं चाहता। किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता। २. इसी का परिणाम है कि इसके लिए (महत् स्वः) = महनीय स्वर्ग (आजातम्) = उत्पन्न हो गया है। ईर्ष्या-द्वेष मानव-जीवन को नरक बनाते हैं। इनसे ऊपर उठे और नरक की समाप्ति हुई। विश्वामित्र का जीवन इसलिए स्वर्गमय रहता है कि ३. (यत्) = जो (एनम्) = इसको (अपसः) = कर्म (अधारयन्) = धारण करते हैं। 'अपस्' उन कर्मों का नाम है जो व्यापक हैं [अप् व्याप्तौ], जो केवल स्वार्थ के लिए नहीं किये गये । ४. यहाँ एक ओर विश्वप्रेम है, दूसरी ओर व्यापक कर्म हैं, इन दोनों के बीच में स्वर्ग है। वस्तुतः प्रेम हो, जीवन क्रियामय हो तो फिर स्वर्ग ही स्वर्ग होता है। स्वर्ग के निर्माण के लिए हाथों में कर्म व हृदय में प्रेम को धारण करना आवश्यक है। कर्मों की पवित्रता के लिए 'कवि' = क्रान्तदर्शी, तत्त्वज्ञानी बनना आवश्यक है। इसका उल्लेख अभी आगे करेंगे। ५. (सः) = वह विश्वामित्र (अध्वराय) = अहिंसामय कर्मों के लिए (परिणीयते) = ले जाया जाता है। सब देव तथा देवाधिपति प्रभु इसे अहिंसामय कर्मों में लगाते हैं । ६. यह विश्वामित्र (कविः) = कवि बनता है, क्रान्तदर्शी होता है। इसकी दृष्टि वस्तुतत्त्व को देखनेवाली होती है। ७. (अत्यः न) = निरन्तर क्रियाशील घोड़े की भाँति यह (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए होता है। जिस प्रकार अश्व [अश्नुते अध्वानम्] निरन्तर मार्ग का व्यापन करता है, अतः शक्तिशाली बना रहता है । ८. विश्वामित्र की अन्तिम विशेषता यह है कि यह 'चनोहितः ' अन्न पर आश्रित होता है। इसका जीवन 'शाकाहारी' होता है। यह परमांस से अपना मांस बढ़ाने का स्वप्न नहीं लेता। मांसाहार मनुष्य को क्रूर बनाता है, परन्तु यह तो सबसे प्रेम के मार्ग पर चलता है, अतः इसके जीवन में मांस का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सदा (चनः) = अन्न पर (हितः) = रक्खा हुआ होता है। यह अपने शरीरधारण के लिए अन्य शरीरों को समाप्त करने का विचार नहीं करता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा जीवन प्रेम व कर्म के समन्वय से स्वर्ग का निर्माण करनेवाला हो ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी अनेक प्रकारचे ज्ञान व कर्म करून विद्युतरूपी अग्निविद्या प्राप्त करावी व भूमीत व्याप्त असलेला, विलग करणारा, यानाना वेगाने पोहोचविणारा अशा अग्नीचा उपयोग करून घ्यावा.

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    विषय

    पुनश्‍च, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यत्) जो विद्युतरूप अग्नी (रोदसी) पूर्य आणि पृथ्वीला तसेच (महत्) महान (जातम्) प्रसिद्ध (स्वः) अंतरिक्षाला (आ, अपृणत्) व्याप्त करून त्यात भरून आहे, (एनम्) या अग्नीला (अपसः) योग्य त्या कामांसाठी (आ, अधारयन्) जे सम्यकप्रकारे धारण वा वापर करतात (ते सर्व जगाचे हित करतात) तो अग्नी (कविः) शब्द (वा नाद एका ठिकाणाहून दुसरीकडे) नेण्याचे साधन (अध्वराय) अहिंसक शिल्पविद्यारूप यज्ञा करिता (विद्युशक्तीपासून निर्मित यंत्रादीद्वारा हिंसा होऊ नये) तसेच (वाज सातये) वेग प्राप्त करण्याकरिता (परि, नीयते) विद्वान वैज्ञानिक त्या शक्तीला दूरदूरपर्यंत घेऊन जाता. कशाप्रकारे? की (न) जसे (अत्यः) मार्गाक्रमण करणारा घोडा दूरदूर जातो. (सः) तो विद्युदग्नी (चरोहितः) पृथ्वी आदींवर अन्न-धान्य उत्पन्न करण्यासाठी आवश्यक आणि हितकारी आहे, असे तुम्ही त्या अग्नीची महती जाणून घ्या. ॥75॥

    भावार्थ

    भावार्थ – मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी अनेक प्रकारच्या विज्ञानांद्वारे, वैज्ञानिक सिद्धांत आणि प्रयोगादीद्वारे विद्युतरूप अग्नीविद्या पूर्णपणे जाणावी आणि भूमीच्या विविध विभागापर्यंत पोहचविणारी साधनें म्हणजे यान आदी वेगवान शीघ्रगामी साधनांची निर्मिती करण्यासाठी या विद्युदग्नीचा उपयोग करावा. ॥75॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Electricity hath filled the Heaven and Earth and the great apparent realm of light. This fire is utilised through application; being the cause of sound, it is used for non-violent industrial concerns. For fastness in battle it is used as a horse that covers distances quickly. It is helpful for the growth of food grains from the Earth.

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    Meaning

    This light energy fills the earth and sky and heaven, born of the Great Mahat mode of Prakriti. When the veteran performers place, light and develop it in yajna, it is radiated all round. It is kavi too, carrier of the Word and sound constantly on the move, immensely valuable for food, energy and victory.

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    Translation

    The fire divine fills heaven and earth and also the great realm of light, as soon as manifest. The wise men glorify him by their noble deeds. He, the giver of food, is led forth to the place of worship like a steed, so that he may grant us wealth and wisdom. (1)

    Notes

    A aprnat, पूरयति, fills. Svaḥ mahat, vast mid-space (अन्तरिक्षम्) । Apasaḥ adhārayan, wise men glorify him. Also, अपस: अपस्विनः, कर्मवन्तः, men of action. Jātam, as soon it was born. Canohitaḥ, bestower of food. Adhvaraya, to the place of worship. Atyo na, अश्व इव, like a horse. Vājasātaye, for win ning wealth.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়ৎ) যে বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি (রোদসী) সূর্য্য, পৃথিবী ও (মহৎ) মহান্ (জাতম্) প্রসিদ্ধ (স্বঃ) অন্তরিক্ষকে (আ, অপৃণৎ) উত্তম প্রকার ব্যাপ্ত হয় (এনম্) এই অগ্নিকে (অপসঃ) কর্ম (আ, অধারয়ন্) উত্তম প্রকার ধারণ করে তথা যে (কবিঃ) শব্দ হওয়ার হেতু অগ্নি (অধবরায়) অহিংসা নামক শিল্প বিদ্যা রূপ য়জ্ঞের তথা (বাজসাতয়ে) বেগের সম্যক্ সেবন হেতু (অত্যঃ) মার্গ ব্যাপ্ত হওয়ার অশ্বের (নঃ) সমান বিদ্বান্গণ (পরি, নীয়তে) প্রাপ্ত করিয়াছে (সঃ) উহা (চনোহিতঃ) পৃথিবী আদি অন্নের জন্য হিতকারী সেইরূপ তোমরাও করিবে ॥ ৭৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, বহু প্রকারের বিজ্ঞান ও কর্ম্ম দ্বারা বিদ্যুৎ রূপ অগ্নির বিদ্যা প্রাপ্ত হইয়া ভূমি আদিতে ব্যাপ্ত বিভাগকর্ত্তা সাধন কৃত যানাদিকে শীঘ্র উপস্থিতকারী অগ্নিকে কার্য্যে উপযুক্ত করিবে ॥ ৭৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ রোদ॑সীऽঅপৃণ॒দা স্ব॑র্ম॒হজ্জা॒তং য়দে॑নম॒পসো॒ऽঅধা॑রয়ন্ ।
    সোऽঅ॑ধ্ব॒রায়॒ পরি॑ ণীয়তে ক॒বিরত্যো॒ ন বাজ॑সাতয়ে॒ চনো॑হিতঃ ॥ ৭৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ রোদসীত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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