यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 23
ऋषिः - सुचीक ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
103
प्र वो॑ म॒हे मन्द॑माना॒यान्ध॒सोऽर्चा॑ वि॒श्वान॑राय विश्वा॒भुवे॑।इन्द्र॑स्य॒ यस्य॒ सुम॑ख॒ꣳ सहो॒ महि॒ श्रवो॑ नृ॒म्णं च॒ रोद॑सी सप॒र्य्यतः॑॥२३॥
स्वर सहित पद पाठप्र। वः॒। म॒हे। मन्द॑मानाय। अन्ध॑सः। अर्चा॑। वि॒श्वान॑राय। वि॒श्वा॒भुवे॑। वि॒श्वा॒भुव इति॑ विश्व॒ऽभुवे॑ ॥ इन्द्र॑स्य। यस्य॑। सुम॑ख॒मिति॒ सुऽम॑खम्। सहः॑। महि॑। श्रवः॑। नृ॒म्णम्। च॒। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। स॒प॒र्य्यतः॑ ॥२३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे मन्दमानायान्धसोर्चा विश्वानराय विश्वाभुवे । इन्द्रस्य यस्य सुमखँ सहो महि श्रवो नृम्णञ्च रोदसी सपर्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र। वः। महे। मन्दमानाय। अन्धसः। अर्चा। विश्वानराय। विश्वाभुवे। विश्वाभुव इति विश्वऽभुवे॥ इन्द्रस्य। यस्य। सुमखमिति सुऽमखम्। सहः। महि। श्रवः। नृम्णम्। च। रोदसीऽइति रोदसी। सपर्य्यतः॥२३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैरीश्वर एव पूज्य इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्य! त्वं रोदसी यस्येन्द्रस्य सुमखं नृम्णं सहो महि श्रवश्च सपर्य्यतस्तस्मै विश्वानराय महे मन्दमानाय विश्वाभुवे प्रार्च स वोऽन्धसः सुखं ददातु॥२३॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्मभ्यम् (महे) महते (मन्दमानाय) आनन्दस्वरूपाय (अन्धसः) अन्नादेः। अत्र विभक्तिव्यत्ययः। (अर्च) सत्कुरुत। अत्र वचनव्यत्ययोः द्व्यचोऽतस्तिङः [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घश्च। (विश्वानराय) विश्वे नरा नायका यस्मात् तस्मै (विश्वाभुवे) यो विश्वे भवति प्राप्नोति विश्वाभूर्यस्य वा विश्वं भवति यस्मादिति वा तस्मै। अत्रोभयत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (यस्य) (सुमखम्) शोभना मखा यज्ञा यस्मात् तम् (सहः) बलम् (महि) महत् (श्रवः) यशः (नृम्णम्) धनम् (च) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सपर्य्यतः) सेवेते॥२३॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! येनोत्पादितं धनं बलं च सर्वैः सेव्यते, स एव सर्वाध्यक्ष आनन्दमयः सर्वव्याप्त ईश्वरो युष्माभिः पूज्यः प्रार्थनीयश्च, स युष्मभ्यं धनादिजन्यं सुखं दास्यति॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य को ईश्वर ही की पूजा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्य! तुम (रोदसी) आकाश-भूमि (यस्य) जिस (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (सुमखम्) सुन्दर यज्ञ जिसमें हो, ऐसे (नृम्णम्) धन (सहः) बल (च) और (महि) बड़े (श्रवः) यश को (सपर्यतः) सेवते हैं, उस (विश्वानराय) सब मनुष्य जिसमें हों (महे) महान् (मन्दमानाय) आनन्दस्वरूप (विश्वाभुवे) सबको प्राप्त वा सब पृथिवी के स्वामी वा संसार जिससे हो, ऐसे ईश्वर के अर्थ (प्र, अर्च) पूजन करो अर्थात् उसको मानो वह (वः) तुम्हारे लिये (अन्धसः) अन्नादि के सुख को देवे॥२३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जिसके उत्पन्न किये धन और बलादि को सब सेवते, उसी महाकीर्तिवाले, सबके स्वामी, आनन्दस्वरूप, सर्वव्याप्त ईश्वर की तुमको पूजा और प्रार्थना करनी चाहिये, वह तुम्हारे लिये धनादि से होनेवाले सुख को देगा॥२३॥
विषय
सर्वोपास्य परमेश्वर की उपासना । सूर्यवत् उत्साही नायक ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( यस्य ) जिस ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर का ( सुमखम् ) उत्तम यज्ञ, (सहः) शत्रु के पराजयकारी बल, ( महि श्रवः ) बड़ा भारी यश और (नृम्णं च ) धन इन पदार्थों को (रोदसी) द्यौ और पृथिवी ज्ञानी अज्ञानी और राजवर्ग प्रजावर्ग दोनों (सपर्यंतः) उपहार में प्रदान करते हैं । उस (विश्वानराय ) समस्त नरों और नेताओं के उत्पादक ( विश्वाभुवे ) समस्त विश्व के उत्पादक, सर्व विश्वव्यापक (अन्धसः) अन्न के दान करने वाले (महे) महान् (मन्दमानाय ) सबको आनन्द देने वाले, स्वयं आनन्दस्वरूप उस परमेश्वर की (वः) तुम लोग (अर्च) अर्चना और स्तुति आदर करो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुचीकः । इन्द्रः । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
विश्वरूप प्रभु की उपासना
पदार्थ
१. गतमन्त्र का विषय 'विश्वरूप' बनना था। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि विश्वरूप बनने के लिए उस विश्वरूप प्रभु की उपासना करो। (वः) = तुम्हारे (महे) = महनीय, पूजनीय व (महस्) = शक्ति देनेवाले (मन्दमानाय) = अत्यन्त आनन्दस्वरूप (विश्वानराय) = सब मनुष्यों के स्वामी [विश्वे नरा यस्य] = किसी व्यक्ति व जातिविशेष से प्रेम न करनेवाले (विश्वाभुवे) = सम्पूर्ण विश्व में चारों ओर व्याप्त उस प्रभु के लिए (अन्धसः) = सोम के द्वारा, सोम के रक्षण से (प्र अर्च) = खूब अर्चना करो। २. वे प्रभु [क] शक्ति देनेवाले हैं [ख] आनन्दमय होने से आनन्द प्राप्त करानेवाले हैं [ग] सब मनुष्यों का हित करनेवाले हैं [घ] सबमें व्याप्त होकर रह रहे हैं। इस प्रभु की उपासना से ही मनुष्य भी विश्वरूप बनता है। उपासना का साधन यह है कि हम प्रभु से दी गई सर्वोत्तम वस्तु सोम की रक्षा करें। इसकी रक्षा ही ब्रह्मचर्य है- 'ब्रह्म की ओर चलना' है । ३. उस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली, सर्वशक्तिसम्पन्न प्रभु की तू उपासना कर (यस्य) = जिसके (सुमखम्) = उत्तम यज्ञ-सृष्टिरूप यज्ञ को (सह:) = सहनशीलता को (महिश्रवः) = महनीय ज्ञान को (नृम्णम् च) = और बल को (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (सपर्य्यतः) = पूज रहे हैं। ये हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र व पृथिवी, आकाश को आच्छादित करनेवाले तारे उस प्रभु का ही स्तवन करते हैं। भक्त जीव भी अनुभव करते हैं कि वे प्रभु कितने सहनशील हैं और किस प्रकार उसके हृदय को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर रहे हैं। एवं, सारा प्राकृतिक जगत् व सम्पूर्ण चेतन जगत् प्रभु की ही महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। इस विश्वरूप प्रभु की उपासना से उपासक भी 'विश्वरूप' बनता है और सभी के साथ प्रेम से वर्तता हुआ 'सुचीक' - प्रभु का उत्तम सम्पर्क करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम विश्वरूप प्रभु की उपासना करें और स्वयं विश्वरूप बनकर अमरता का लाभ करें।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराकडून तुम्हाला धन व बल वगैरे प्राप्त होते. त्या आनंदस्वरूप, महाकीर्तिमान, सर्वांचा स्वामी व सर्वत्र व्याप्त असलेल्या परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. त्यामुळे धन, अन्न वगैरेंपासून मिळणारे सुख तो तुम्हाला देईल.
विषय
मनुष्यांनी केवळ ईश्वराचीच पूजा करावी, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (रोदसी) आकाश आणि भूमी (यस्य) ज्या (इन्द्रस्य) परमेश्वराच्या (सुमखम्) या सुंदर सृष्टिरूप यज्ञात (नृम्णम्) धन (सहः) शक्ती (च) आणि (महिः) (श्रवः) अत्यंत कीर्तीला (सपर्यतः) उपभोगतात (आकाश व पृथ्वी यांवर ईश्वराने धन व शक्ती प्राप्त करण्यासाठी पदार्थ देऊन माणसाला उपकृत केले आहे) (विश्वानराय) सर्व मुनष्यसृष्टी ज्यात आहे, अशा त्या (महे) महान (मन्दमानाय) आनंदस्वरूप (विश्ववाभुवे) सर्वाना प्राप्त अथवा पृथ्वीचा जो स्वामी, वा ज्याच्यामुळे हा संसार आहे, त्या परमेश्वराचे (प्र, सर्च) तुम्ही पूजन करा म्हणजे त्याचे अस्तित्व सत्य माना (व श्रद्धा ठेवा) म्हणजे ईश्वर (वः) तुम्हाला (अन्धसः) भोजन आदीचे सुख देईल. ॥13॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याने उत्पन्न केलेल्या धन आणि शक्तीचे सर्वजण सेवन करतात, त्या महाकीर्तीमान, सर्वस्वामी, आनंदस्वरूप, सर्वव्यापी ईश्वराची तुम्ही पूजा व प्रार्थना केली पाहिजे. तो तुम्हाला धन आदीने मिळणारे सुख देईल ॥23॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Worship Him, Whose beautiful sacrifice, wealth, strength, and mighty glory are enjoyed by the Heaven and Earth; Who is the creator of all beings, the Embodiment of great happiness, All-pervading and Supplier of food.
Meaning
All of you offer worship and homage in honour of Indra, supreme, beatific, support, energy and spirit of the universe whose creative yajna, omnipotence, eternal glory and universal wealth, the earth and heaven serve and celebrate.
Translation
Worship, O men, the great resplendent Lord, who is the joy-giving food, benefactor of all men, pervading all the universe and whose power of good actions, great fame and wealth is acknowledged by the heaven and earth as well. (1)
Notes
Arcā, men, worship (Him). Mandamānāya, स्तूयमानाय मोदमानाय वा, to him who is being praised or who is rejoicing. Or, joy-giving. Andhasah, of the food. Viśvābhuve, pervading all the universe (Dative case). Rodasi saparyata, heaven and earth acknowledge. Sumakhain sahaḥ, power of good actions. Mahi śravaḥ, great fame. Nṛmṇam, धनं, wealth.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈরীশ্বর এব পূজ্য ইত্যাহ ॥
মনুষ্যকে ঈশ্বরেরই পূজা করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্য! তুমি (রোদসী) আকাশভূমি (য়স্য) যে (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (সুমখম্) সুন্দর যজ্ঞ যাহাতে হয় এমন (নৃম্ণম্) ধন (সহঃ) বল (চ) এবং (মহি) বৃহৎ (শ্রবঃ) যশকে (সপর্য়তঃ) সেবন কর সেই (বিশ্বানরায়) সকল মনুষ্য যাহাতে হয় (মহে) মহান্ (মন্দমানায়) আনন্দস্বরূপ (বিশ্বাভুবে) সকলকে প্রাপ্ত অথবা সকল পৃথিবীর স্বামী বা সংসার যাহার দ্বারা হয় এমন ঈশ্বরের জন্য (প্র, অর্চ) পূজন কর অর্থাৎ তাহাকে স্বীকার কর । তিনি (বঃ) তোমাদের জন্য (অন্ধসঃ) অন্নাদির সুখ প্রদান করিবেন ॥ ২৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহার উৎপন্ন করা ধন ও বলাদি সব সেবন করে সেই মহাকীর্ত্তিবান্ সকলের স্বামী আনন্দস্বরূপ সর্বব্যাপ্ত ঈশ্বরের পূজা করা তোমার উচিত, তিনি তোমাদের জন্য ধনাদি হইতে প্রাপ্ত সুখ দিবেন ॥ ২৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্র বো॑ ম॒হে মন্দ॑মানা॒য়ান্ধ॒সোऽর্চা॑ বি॒শ্বান॑রায় বিশ্বা॒ভুবে॑ ।
ইন্দ্র॑স্য॒ য়স্য॒ সুম॑খ॒ꣳ সহো॒ মহি॒ শ্রবো॑ নৃ॒ম্ণং চ॒ রোদ॑সী সপ॒র্য়্যতঃ॑ ॥ ২৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্র ব ইত্যস্য সুচীক ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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