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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 66
    ऋषिः - नृमेध ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    121

    त्वमि॑न्द्र॒ प्रतू॑र्त्तिष्व॒भि विश्वा॑ऽअसि॒ स्पृधः॑।अ॒श॒स्ति॒हा ज॑नि॒ता वि॑श्व॒तूर॑सि॒ त्वं तू॑र्य्य तरुष्य॒तः॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। इ॒न्द्र॒। प्रतू॑र्त्ति॒ष्विति॑ प्रऽतू॑र्त्तिषु। अ॒भि। विश्वाः॑। अ॒सि॒। स्पृधः॑ ॥ अ॒श॒स्ति॒हेत्य॑ऽशस्ति॒हा। ज॒नि॒ता। विश्व॒तूरिति॑ विश्व॒ऽतूः। अ॒सि॒। त्वम्। तू॒र्य॒। त॒रु॒ष्य॒तः ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृधः । अशस्तिहा जनिता विश्वतूरसि त्वन्तूर्य तरुष्यतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। इन्द्र। प्रतूर्त्तिष्विति प्रऽतूर्त्तिषु। अभि। विश्वाः। असि। स्पृधः॥ अशस्तिहेत्यऽशस्तिहा। जनिता। विश्वतूरिति विश्वऽतूः। असि। त्वम्। तूर्य। तरुष्यतः॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 66
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र! यतस्त्वं प्रतूर्त्तिषु विश्वा स्पृधोऽभ्यसि। अशस्तिहा जनिता विश्वतूस्सँस्त्वं विजयवानसि। तस्मात् तरुष्यतस्तूर्य्य॥६६॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (प्रतूर्त्तिषु) हननकर्मसु सङ्ग्रामेषु (अभि) (विश्वा) सर्वाः (असि) भवसि (स्पृधः) स्पर्द्धमाना ईर्ष्यायुक्ताः शत्रुसेनाः (अशस्तिहा) अप्रशंसानां दुष्टानां हन्ता (जनिता) सुखानि प्रादुर्भावुकः (विश्वतूः) विश्वान् शत्रून् तूर्यति हिनस्ति सः (असि) (त्वम्) (तूर्य) हिन्धि (तरुष्यतः) हनिष्यतः शत्रून्॥६६॥

    भावार्थः

    ये पुरुषा अधर्म्यकर्मनिवर्त्तकाः सुखानां जनका युद्धविद्यासु कुशलाः स्युस्ते शत्रून् विजेतुं शक्नुयुः॥६६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्य देनेवाले राजन्! जिस कारण (त्वम्) आप (प्रतूर्तिषु) जिसमें मारना होता उन संग्रामों में (विश्वाः) शुत्रुओं की सब (स्पृधः) ईर्ष्यायुक्त सेनाओं को (अभि, असि) तिरस्कार करते हो तथा (अशस्तिहा) जिनकी कोई प्रशंसा न करे, उन दुष्टों के हन्ता (जनिता) सुखों के उत्पन्न करनेहारे (विश्वतूः) सब शत्रुओं को मारनेवाले हुए (त्वम्) आप विजयवाले (असि) हो, इससे (तरुष्यतः) हनन करनेवाले शत्रुओं को (तूर्य्य) मारिये॥६६॥

    भावार्थ

    जो राजपुरुष अधर्म्मयुक्त कर्मों के निवर्त्तक, सुखों के उत्पादक और युद्धविद्या में कुशल हों, वे शत्रुओं को जीतने को समर्थ हों॥६६॥

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    विषय

    विजयी पुरुषों के लक्षण । इन्द्र का स्वरूप ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (प्रतूर्त्तिषु) खूब अधिक हिंसा या खूब हनन करने के स्थानों, संग्रामों में तू (विश्वाः स्पृधः) अपने समस्त स्पर्धा करने वाली, शत्रु-सेनाओं को (अभि असि) पराजित करता है । तू ( जनिता) सब सुखों का उत्पादक और (अशस्तिहा) सब दुष्ट पुरुषों और अपकीत्तियों का विनाशक होकर (विश्वतुः) समस्त शत्रुओं का नाश करने हारा (असि) हो । हे राजन् ! सेनापते ! ( त्वं) तू (तरुष्यतः) हमें मारना चाहने वाले शत्रुओं को (सूर्य) विनाश कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः । इन्द्रो देवता । पथ्या बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    इन्द्र-जितेन्द्रियता

    पदार्थ

    १. वामदेव ने गतमन्त्र में प्रभु से वृत्र - विनाश की याचना की थी। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'नृमेध' है जो अन्य मनुष्यों के साथ मिलकर चलता है। वस्तुतः 'सबके प्रति प्रेम होना' ही वृत्र के नाश का उपाय है। प्रेम ही संकुचित होते-होते 'वृत्र' बन जाता है। २. प्रभु जीव से कहते हैं- (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (त्वम्) = तू प्रतूर्त्तिषु संग्रामों में (विश्वाः स्पृध:) = सब शत्रुओं को (अभि असि) = [अभि भवसि] अभिभूत कर लेता है। मनुष्य जितेन्द्रिय बने, यह जितेन्द्रिय बनना उसे सब शत्रुओं का विजेता बना देगा। ३. इस जितेद्रियता से सब शत्रुओं की समाप्ति होगी। परिणामत: तू (अशस्तिहा) = सब अप्रशंसनीय, अशुभ बातों का ध्वंस करेगा और (जनिता) = अपना प्रादुर्भाव - विकास करनेवाला बनेगा। इन शत्रुओं ने ही तो हमारे सब विकास को रोका हुआ था। अब यह इन्द्र (विश्वतूः असि) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाला हो गया है। हे इन्द्र ! (त्वम्) = तू (तरुष्यतः) = तेरी हिंसा करनेवालों को (तूर्य) = हिंसित कर डाल । वस्तुतः जब मनुष्य इन्द्रियों को जीत नहीं पाता तब उनका दास बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनें और अशुभ को दूर करके अपने जीवन को श्रीसम्पन्न बनाएँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे राजपुरुष अधर्मयुक्त कर्माचा त्याग करून सुख उत्पन्न करतात व युद्धविद्येत कुशल असतात ते शत्रूंना जिंकू शकतात.

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    विषय

    पुनश्‍च, त्या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्‍वर्यदायक राजन्, (त्वम्) आपण (प्रतूर्तिषु) ज्यात ठार मारणे, पराजित करणे, आदी कर्में केली जातात, त्या युद्धामधे (विश्‍वाः) शत्रूच्या सर्व (स्पृधः) ईर्ष्या-द्वेष करणार्‍या सैन्याला (अभि, असि) सर्वथा पराभूत करता तसेच (अशस्तिहाः) ज्याची कोणीही प्रशंसा करीत नाही, अशा दुष्टांचा वध करणारे आपण (जनिता) आम्हा प्रजाजनांसाठी सर्व सुख देणारे असून (त्वम्) आपण (विश्‍वतूः) सर्व शत्रूंना सर्वतः पराजित करणारे व विजय संपादन करणारे (असि) आहात. त्यामुळे (राष्ट्रावर ज्या ज्या वेळी पुढे शत्रूचे आक्रमण होतील, त्या त्या वेळी (तरुष्यातः) तुम्हाला ठार करू पाहणार्‍या शत्रूला आपण (तूर्य्या) अवश्य ठार करा. ॥66॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे राजपुरुष अधर्मयुक्त कर्मांचे निवर्तक आणि सुख-उत्पादक असून युद्धकलेत प्रवीण असतील, ते शत्रूंवर अवश्य विजय मिळवतील ॥66॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Thou in thy battles, King, art subduer of all hostile bands. Thou art the destroyer of the depraved, genitor of happiness, slayer of foes, conqueror, vanquish the foes who wish to kill us.

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    Meaning

    Indra, mighty ruler, over all your rivals in the fierce battles of life you are supreme. Creator of joy and prosperity, destroyer of detractors, subduer of opponents, eliminate those who damage and destroy life and nature.

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    Translation

    O resplendent Lord, you are the subduer of all opposing elements in conflicts. You are the vanquisher of the wicked. You are the progenitor. You are the destroyer of all enemies. O opposer, you beat down the opponents. (1)

    Notes

    Praturtişu, g, battles, or enemies. Abhi asi, अभि भवसि, you subdue them. Sprdhaḥ, rivals; adversaries. Aśastihā, अशस्तयः दुष्टान् हन्ति यः, slayer of the wicked, Janitā, progenitor; also, creator of happiness. Viśvatūḥ, र्वतूरण:, killer of all the enemies. Türya, जहि , मारय, kill. Taruşyataḥ, those who want to kill us.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (ইন্দ্র) উত্তম ঐশ্বর্য্যদাতা রাজন্! যে কারণে (ত্বম্) আপনি (প্রতূর্ত্তিষু) যাহাতে হনন কর্ম হয় সেই সৎ সংগ্রামে (বিশ্বাঃ) শত্রুদিগের সকল (স্পৃধঃ) ঈর্ষাযুক্ত সেনাসমূহকে (অভি, অসি) তিরস্কার করেন তথা (অশস্তিহা) যাহার কেউ প্রশংসা করে না, সেই সব দুষ্টদিগের হন্তা (জনিতা) সুখ উৎপন্নকারী (বিশ্বতূঃ) সকল শত্রুদিগকে হত্যাকারী হইয়া (ত্বম্) আপনি বিজয়ী (অসি) হইয়াছেন, এইজন্য (তরুষ্যতঃ) হননকারী শত্রুদিগকে (তূর্য়্য) মারুন ॥ ৬৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সব রাজপুরুষ অধর্ম্মযুক্ত কর্ম্মের নিবর্ত্তক, সুখের উৎপাদক এবং যুদ্ধবিদ্যায় কুশল, তাহারা শত্রুদিগকে জিতিতে সক্ষম হউক ॥ ৬৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বমি॑ন্দ্র॒ প্রতূ॑র্ত্তিষ্ব॒ভি বিশ্বা॑ऽঅসি॒ স্পৃধঃ॑ ।
    অ॒শ॒স্তি॒হা জ॑নি॒তা বি॑শ্ব॒তূর॑সি॒ ত্বং তূ॑র্য়্য তরুষ্য॒তঃ ॥ ৬৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বমিন্দ্রেত্যস্য নৃমেধ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিগনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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