Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 33

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 38
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    184

    तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्य्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒भि॒चक्ष॒ऽइत्य॑भि॒चक्षे॑। सूर्य्यः॑। रू॒पम्। कृ॒णु॒ते॒। द्योः। उ॒पस्थ॒ऽइत्यु॒पस्थे॑ ॥ अ॒न॒न्तम्। अ॒न्यत्। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। कृ॒ष्णम्। अ॒न्यत्। ह॒रितः॑। सम्। भ॒र॒न्ति॒ ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्या रूपङ्कृणुते द्योरुपस्थे । अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। मित्रस्य। वरुणस्य। अभिचक्षऽइत्यभिचक्षे। सूर्य्यः। रूपम्। कृणुते। द्योः। उपस्थऽइत्युपस्थे॥ अनन्तम्। अन्यत्। रुशत्। अस्य। पाजः। कृष्णम्। अन्यत्। हरितः। सम्। भरन्ति॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! द्योरुपस्थे वर्त्तमानः सूर्य्यो मित्रस्य वरुणस्य च तद्रूपं कृणुते येन जनोऽभिचक्षे। अस्य रुशत्पाजोऽनन्तमन्यदस्ति अन्यत्कृष्णं हरितः संभरन्तीति विजानीत॥३८॥

    पदार्थः

    (तत्) (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) अभिपश्यति (सूर्य्यः) चराचरात्मा (रूपम्) (कृणुते) करोति निर्मिमीते (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) समीपे (अनन्तम्) अविद्यमानो अन्तो यस्य तत् (अन्यत्) अस्मद्भिन्नम् (रुशत्) शुक्लं शुद्धस्वरूपम् (अस्य) (पाजः) बलम् (कृष्णम्) निकृष्टवर्णम् (अन्यत्) (हरितः) हरणशीला दिशः (सम्) (भरन्ति) हरन्ति॥३८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यदनन्तं ब्रह्म तत्प्रकृतेर्जीवेभ्यश्चान्यदस्ति। एवं प्रकृत्याख्यं कारणं विभु वर्त्तते तस्माद्यज्जायते तत्तत्समयं प्राप्येश्वरनियमेन विनश्यति, यथा जीवाः प्राणोदानाभ्यां सर्वान् व्यवहारान् साध्नुवन्ति तथैवेश्वरः स्वेनानन्तसामर्थ्येनास्योत्पत्तिस्थितिप्रलयान् करोति॥३८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (द्योः) प्रकाश के (उपस्थे) निकट वर्त्तमान अर्थात् अन्धकार से पृथक् (सूर्यः) चराचर का आत्मा (मित्रस्य) प्राण और (वरुणस्य) उदान के (तत्) उस (रूपम्) रूप को (कृणुते) रचता है जिससे मनुष्य (अभिचक्षे) देखता जानता है (अस्य) इस परमात्मा का (रुशत्) शुद्धस्वरूप और (पाजः) बल (अनन्तम्) अपरिमित (अन्यत्) भिन्न है और (अन्यत्) (कृष्णम्) अविद्यादि मलीन गुणवाले भिन्न जगत् को (हरितः) दिशा (सम्, भरन्ति) धारण करती हैं॥३८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो अनन्त ब्रह्म वह प्रकृति और जीवों से भिन्न है। ऐसे ही प्रकृतिरूप कारण विभु है, उससे जो-जो उत्पन्न होता, वह वह समय पाकर ईश्वर के नियम से नष्ट हो जाता है, जैसे जीव प्राण, उदान से सब व्यवहारों को सिद्ध करते, वैसे ईश्वर अपने अनन्त सामर्थ्य से इस जगत् के उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयों को करता है॥३८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से परमेश्वर का वर्णन । उसके शुक्ल, कृष्ण दोनों प्रकार के रूपों का रहस्य ।

    भावार्थ

    (सूर्य) सूर्य जिस प्रकार (द्योः उपस्थे) आकाश के बीच में रहकर (मित्रस्य) वायु और (वरुणस्य) जल के ( तत् रूपं कृणुते ) उस रूप को प्रकट करता है जिसे (अभिचक्षे) समस्त जगत् का प्राणी देखता है । इसी प्रकार (सूर्यः) सबका प्रेरक, उत्पादक परमेश्वर भी (द्योः) प्रकाशमय, ज्ञानमय स्वरूप में (उपस्थे ) विद्यमान रह कर (मित्रस्य वरुणस्य ) मित्र और वरुण, सब में विद्यमान प्राण और उदान दोनों का ऐसा ( रूपं कृणुते) रुचिकर स्वरूप उत्पन्न करता है जिसे यह मनुष्य भी ( अभिचक्षे ) देखता है | अथवा – [ मित्रम् अहः वरुणो रात्रिः ] मित्र दिन और वरुण रात्रि, इन दोनों का ऐसा रूप उत्पन्न करता है जिससे सबको देखता है । (अस्य) इसका भी ( रुशत् ) तेजोयुक्त सूर्य के समान (अनन्तम् ) अनन्त (पाजः) बल, सामर्थ्यं (अन्यत् ) एक प्रकार का है और (अन्यत् कृष्णम् ) दूसरा एक और सामर्थ्य 'कृष्ण' अर्थात् काला है । अर्थात् सूर्य के जिस प्रकार दो सामर्थ्य हैं एक चमकने वाला, दिन करने वाला, दूसरा कृष्ण आकर्षक काला का उसी प्रकार परमेश्वर के दो सामर्थ्य हैं एक (रुशव पाजः) तेजोयुक्त अर्थात् सबको प्रकाशमय, चेतनामय करने वाला उत्पादक सामर्थ्य और दूसरा 'कृष्ण' सब संसार का 'कर्पण' करने वाला या कृन्तन, विनाश करनेवाला, प्रलयकारी है जिस प्रकार सूर्य के दोनों प्रकार के सामर्थ्यो को ( हरित: ) दिशाएं धारण करती हैं, उसी प्रकार इस परमेश्वर के भी दोनों सामर्थ्यो को ( हरित: ) अतिवेग वाली शक्तियां (संभरन्ति) भरण पोषण करती हैं और वे ही (संभरन्ति) संहार भी करती हैं । (२) अध्यात्म में -सूर्य सबका प्रेरक आत्मा सर्व प्रकाशमय चेतनामय मस्तक के बीच में रह कर मित्र प्राण और वरुण अपान दोनों का रूप करता है । इसका अनन्त सामर्थ्य, एक ( रुशत् ) रोचक है जो इसको सात्विक कर्म कराता है, चेतन रखता है । दूसरा 'कृष्ण' तामस बल हैं जो समस्त प्राणों को कर्पण करता है जिसको ( हरित: ) इन्द्रियां धारण करती हैं । ( ३ ) इसी प्रकार राष्ट्र में सूर्य के समान तेजस्वी राजा मित्र और वरुण के रूप धारण करता है वह सज्जनों पर अनुग्रह और दुष्टों पर निग्रह करने वाले दो विभाग करता है। एक उसका तेजस्वी रूप है दूसरा 'कृष्ण' अर्थात् भयानक, शत्रुनाशकारी बल है । जिससे संहारकारी वीर सेनाएं और प्रजाएं धारण करती हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्सः । सूर्यः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ब्रह्म हे प्रकृती व जीव यांच्यापेक्षा वेगळे आहे. विभू प्रकृतीरूपी कारणापासून जे जे उत्पन्न होते ते कालांतरानंतर ईश्वरी नियमानुसार नष्ट होते. जीव जसे प्राण व उदान यांच्याद्वारे सर्व व्यवहार सिद्ध करतो तसे ईश्वर आपल्या सामर्थ्याने या जगाची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय करतो.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुन्हा त्या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तो परमात्मा (द्योः) प्रकाश लोकाजवळ (अर्थात अति अत्यंत दूर पर्यंतही विद्यमान आहे, जो (उपस्ये) अंधकारापासून भिन्न म्हणजे प्रकाशरूप आहे. तो (सूर्यः) चर-अचर जगाचा आत्मा (मित्रस्य) प्राण आणि (वरूणस्य) उदान वायूच्या (तत्) त्या (रूपम्) रूपाची (कृणुते) रचना करतो (प्राण्यांना प्राण, उदानादी वायू व पंचभूतमय शरीर देऊन जीवांना जीवन देतो) आणि या मुळेच मनुष्य (अभिचक्षे) सर्वजण पाहतो आणि जाणतो. (अस्य) असा हा परमेश्‍वर (रूशत) शुद्धस्वरूप आणि (पाजः) बळीचा (अनन्तम्) अपरिमित भंडार असून तो (अन्यत्) या जीव व प्रकृतीपेक्षा भिन्न आहे. तो (अन्यत्) (कृष्णाम्) अविदय आदी दुर्गूणयुक्त आणि त्याहून वेगळ्या अशा जगाला आणि (हरितः) सर्व दिशांना (सन्भरचि) धारण करतो. ॥38॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जो अनंत ब्रह्म आहे, तो प्रकृती व जीवात्म्याहून भिन्न आहे. तो प्रकृती रूप कारण असल्यामुळे विभु आहे. त्यापासून जे जे उत्पन्न होते, समाप्तीची वेळ आल्यानंतर ते ते ईश्‍वराच्या नियमाप्रमाणे नष्ट होते. (अर्थात् सृष्टीत आधी वा वर्तमानकाळात जे जे उत्पन्न होते, ते मधेच अथवा प्रलयकाळी नष्ट होते.) ज्याप्रमाणे जीव प्राण व उदास वायूद्वारे सर्व व्यवहार पूर्ण करतात. त्याप्रमाणे ईश्‍वर आपल्या अनंत सामर्थ्याद्वारे या सृष्टीची उत्पत्ती, स्थिती आणि प्रलय करतो. ॥38॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God, away from darkness, creates that form of Apan and Udan, whereby the man beholds and perceives. Immeasurable are His Immaculate Nature and power, different from soul, and different from Matter, full of ignorance and darkness, wherein reside the quarters.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    In the midst of the heaven of existence, the Sun, eternal creator, creates the form of Mitra, divinity of the day, and of Varuna, spirit of the night, to watch (the work of His own creation) for all. One power of His is light, brilliant and boundless. The other is dark which the eternal spaces hold.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    In the middle of the heavens, the radiant sun displays his form to enable us to see properly the light and life. His rays extend brilliant power on the one hand, and on the other, bring on the darkness of the night. (1)

    Notes

    Dyoh upasthe, in the middle of heavens. Mitrasya Varuṇasya abhicakşe, so that Mitra and Varuna may see properly; Mitra finds out the virtuous to reward them and Varuna finds out the wicked to punish. Rusat pājah, brilliant or radiant power. Anantam, endless; never-exhausting. Anyat, some of them; also others. Kṛṣṇam, dark; darkness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (দ্যোঃ) প্রকাশের (উপস্থে) নিকট বর্ত্তমান অর্থাৎ অন্ধকার হইতে পৃথক্ (সূর্য়ঃ) চরাচরের আত্মা (মিত্রস্য) প্রাণ ও (বরুণস্য) উদানের (তৎ) সেই (রূপম্) রূপকে (কৃণুতে) রচনা করে যাহা দ্বারা মনুষ্য (অভিচক্ষে) দেখে, জানে (অস্য) এই পরমাত্মার (রুশৎ) শুদ্ধস্বরূপ এবং (পাজঃ) বল (অনন্তম্) অপরিমিত (অন্যৎ) ভিন্ন এবং (অন্যৎ) (কৃষ্ণম্) অবিদ্যাদি মলীন গুণযুক্ত ভিন্ন জগতকে (হরিতঃ) দিশা (সম্, ভরন্তি) ধারণ করে ॥ ৩৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যিনি অনন্ত ব্রহ্ম, তিনি প্রকৃতি ও জীব হইতে ভিন্ন । এমনই প্রকৃতিরূপ কারণ বিভু, তাহা হইতে যাহা যাহা উৎপন্ন হয় উহা উহা সময়ান্তরে ঈশ্বরের নিয়মে নষ্ট হইয়া যায় । যেমন জীব প্রাণ, উদান দ্বারা সকল ব্যবহারকে সিদ্ধ করে সেইরূপ ঈশ্বর স্বীয় অনন্ত সামর্থ্য বলে এই জগতের উৎপত্তি, স্থিতি ও প্রলয়কে করেন ॥ ৩৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তন্মি॒ত্রস্য॒ বর॑ুণস্যাভি॒চক্ষে॒ সূর্য়্যো॑ রূ॒পং কৃ॑ণুতে॒ দ্যোরু॒পস্থে॑ ।
    অ॒ন॒ন্তম॒ন্যদ্রুশ॑দস্য॒ পাজঃ॑ কৃ॒ষ্ণম॒ন্যদ্ধ॒রিতঃ॒ সং ভ॑রন্তি ॥ ৩৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তন্মিত্রস্যেত্যস্য কুৎস ঋষিঃ । সূর্য়্যো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top