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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    156

    यु॒क्ष्वा हि दे॑व॒हूत॑माँ॒२ऽअश्वाँ॑२ऽअग्ने र॒थीरि॑व।नि होता॑ पू॒र्व्यः स॑दः॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्ष्व। हि। दे॒व॒हूत॑मा॒निति॑ देव॒ऽहूत॑मान्। अश्वा॑न्। अ॒ग्ने॒। र॒थीरि॒वेति॑ र॒थीःऽइ॑व ॥ नि। होता॑। पू॒र्व्यः। स॒दः॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्ष्वा हि देवहूतमाँऽअश्वाँ अग्ने रथीरिव । नि होता पूर्व्यः सदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युक्ष्व। हि। देवहूतमानिति देवऽहूतमान्। अश्वान्। अग्ने। रथीरिवेति रथीःऽइव॥ नि। होता। पूर्व्यः। सदः॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हेअग्ने! त्वं रथीरिव देवहूतमानश्वान् युक्ष्व, होता पूर्व्यः सन् हि नि सदः॥४॥

    पदार्थः

    (युक्ष्व) योजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (हि) खलु (देवहूतमान्) ये देवैर्विद्वद्भिर्हूयन्ते स्तूयन्ते तेऽतिशयितास्तान् (अश्वान्) आशुगामिनोऽग्न्यादीन् तुरङ्गान् वा (अग्ने) विद्वन्! (रथीरिव) यथा सारथिस्तथा। अत्र मत्वर्थे ईर् प्रत्ययः। (नि) नितराम् (होता) आदाता (पूर्व्यः) पूर्वैः कृतविद्यः (सदः) अत्राडभावः॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सुशिक्षितः सारथिरश्वैरनेकानि कार्य्याणि साध्नोति, तथा कृतविद्यो जनोऽग्न्यादिभिरनेकानि कार्याणि साध्नुयात्॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन्! आप (रथीरिव) सारथि के समान (देवहूतमान्) विद्वानों से अत्यन्त स्तुति किये हुए (अश्वान्) शीघ्रगामी अग्नि आदि वा घोड़ों को (युक्ष्व) युक्त कीजिये (पूर्व्यः) पूर्वज विद्वानों से विद्या को प्राप्त (होता) ग्रहण करते हुए (हि) निश्चय कर (नि, सदः) स्थिर हूजिये॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उत्तम शिक्षित सारथि घोड़ों से अनेक कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे विद्वान् जन अग्नि आदि से अनेक कार्यों को सिद्ध करें॥४॥

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    विषय

    विद्वान् मित्रों और श्रेष्ठों का आदर करने का उपदेश । सूर्य चन्द्र या अग्नि सूर्य के समान दो शक्तियों का संसारपालन ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अ० १२ । ३७ ॥

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    विषय

    स्वागत

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने !) = आगे ले चलनेवाले प्रभो ! (रथीः इव) = उत्तम सारथि के समान (हि) = निश्चय से (देवहूत-मान्) = अधिक-से-अधिक दिव्य गुणों का आह्वान करनेवाले (अश्वान्) = इन्द्रियरूप अश्वों को (युक्ष्व) = इस शरीररूप रथ में जोतिए । मेरे इस रथ के सारथि आप ही हैं। आपने ही यह रथ दिया है, उसमें घोड़े भी आपने ही जोतने हैं । २. अब दिव्य गुणों का पुञ्ज बनकर सब प्रकार के मलों को दूर करके मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि [क] (होता) = आप सब पदार्थों के देनेवाले हैं [ख] (पूर्व्यः) = आप सबसे पूर्व स्थान में स्थित हैं, सबसे अग्रणी हैं, परमेष्ठी हैं। आप (निसदः) = यथाशक्ति पवित्र किये गये मेरे इस हृदय-मन्दिर में विराजमान हों। ३. संसार में हम किसी भी मान्य पुरुष को आमन्त्रित करते हैं तो अपने घर को साफ़-सुथरा करने का प्रयत्न करते हैं। आज प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'विश्वरूप' ने प्रभु को आमन्त्रित करना है, अतः उसने अपनी सभी इन्द्रियों को शुद्धतम करने का प्रयत्न किया है। शरीर, मन, आत्मा व इन्द्रियाँ - सभी को शुद्ध बनाकर वह प्रभु से कहता है कि हे प्रभो ! आइए और मेरे हृदयासन पर विराजिए। मैंने यथासम्भव अपने हृदय को द्वेषरूप मल से शून्य किया है। द्वेष से ऊपर उठकर सभी में आत्मभावना करके मैंने 'विश्वरूप' बनकर सच्चे 'विश्वरूप' आपका दर्शन करने की कामना की है। आप आइए, मेरे हृदय में आसन ग्रहण कीजिए, जिससे मैं आपके दर्शन से कृतकृत्य हो सकूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियों को परिशुद्ध करके हम अपने हृदयों में प्रभु का आह्वान करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा उत्तम सारथी घोड्यांकडून अनेक कामे करवून घेतो तसे विद्वान लोकांनी अग्नीपासून उपयुक्त कामे करून घ्यावीत.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे (अग्ने) विद्वान, आपण (रथीरिव) सारथीप्रमाणे (देवहूतमान्) विद्वानांद्वारे प्रार्थना केल्यानंतर (अश्‍वाज्) शीघ्रगामी वाहनावर स्वार होऊन वा रथात घोडे (युक्ष्व) जुंपून इकडे या. (पूर्व्यः) पूर्वज विद्वानांकडून जी विद्या आपण प्राप्त केली आहे, (होता) ती अधिक वाढवीत अथवा आम्हा सर्वांना ती विद्या प्रदान करीत आपण (या आमच्या नगरीत वा आश्रमात) (हि) अवश्यमेव (नि, सदः) स्थायीपणे वास्तव्य करा. महान प्रख्यात विद्वानाला ग्रामस्थ जन त्यांच्या गावी राहून उपदेश देण्याविषयी प्रार्थना करीत आहेत-असा प्रसंग कल्पित करता येतो)॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे एक उत्तम प्रशिक्षणप्राप्त सारथी घोड्यांद्वारे अनेक कामें पूर्ण करून घेतो, तद्वत विद्वानांनी (वैज्ञानिकांनी) अग्नी आदी पदार्थांपासून अनेक कार्यें पूर्ण करून घ्यावीत. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as a charioteer yokes fast horses highly praised by the experts, so shouldst thou arrange fast burning fires, and verily take thy seat as Hota instructed by the aged sages.

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    Meaning

    Sagely scholar, brilliant as Agni, veteran high- priest of the science of fire, taught by eminent masters, rise like a heroic warrior of the chariot, yoke the fastest horses consecrated by the divinities and carry on the pursuit of yajna relentlessly.

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    Translation

    O fire divine, like a charioteer, yoke your coursers, who are best invokers of the bounties of Nature. Be seated in this sacrifice as the ancient sacrificer. (1)

    Notes

    Same as XIII. 37.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বন্! আপনি (রথীরিব) সারথির সমান (দেবহূতমান্) বিদ্বান্ দিগের দ্বারা অত্যন্ত স্তুত্য হইয়া (অশ্বান্) শীঘ্রগামী অগ্নি আদি বা অশ্বগুলিকে (য়ুক্ষ্ব) যুক্ত করুন (পূর্ব্যঃ) পূর্বের কৃতবিদ্যা হইতে বিদ্যাকে প্রাপ্ত (হোতা) গ্রহণ করিয়া (হি) নিশ্চয় করিয়া (নি, সদঃ) স্থির হউন ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন উত্তম শিক্ষিত সারথি অশ্ব দ্বারা অনেক কার্য্য সাধন করে সেইরূপ বিদ্বান্ ব্যক্তি অগ্নি আদি দ্বারা বহু কার্য্য সাধন করিবে ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ু॒ক্ষ্বা হি দে॑ব॒হূত॑মাঁ॒২ऽঅশ্বাঁ॑২ऽঅগ্নে র॒থীরি॑ব ।
    নি হোতা॑ পূ॒র্ব্যঃ স॑দঃ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ুক্ষ্বেত্যস্য বিশ্বরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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