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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड् गायत्री स्वरः - षड्जः
    92

    विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ऽइन्द्रे॑ण वा॒युना॑।पिबा॑ मि॒त्रस्य॒ धाम॑भिः॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑भिः। सो॒म्यम्। मधु॑। अग्ने॑। इन्द्रे॑ण। वा॒युना॑ ॥ पिब॑। मि॒त्रस्य॑। धाम॑भि॒रिति॒ धाम॑ऽभिः ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वेभिः सोम्यम्मध्वग्नऽइन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वेभिः। सोम्यम्। मधु। अग्ने। इन्द्रेण। वायुना॥ पिब। मित्रस्य। धामभिरिति धामऽभिः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वं यथा सूर्य्यो विश्वेभिर्धामभिरिन्द्रेण वायुना सह सोम्यं मधु पिबति, तथा मित्रस्य विश्वेभिर्धामभिः सोम्यं मधु रसं त्वं पिब॥१०॥

    पदार्थः

    (विश्वेभिः) अखिलैः (सोम्यम्) सोमेष्वोषधीषु भवम् (मधु) मधुरादिगुणयुक्तं रसम् (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन्! (इन्द्रेण) सर्वेषां धारकेण (वायुना) बलवता पवनेन (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घः (मित्रस्य) सुहृदः (धामभिः) स्थानैः॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यूयं यथा सूर्य्यः सर्वस्माद्रसमाकृष्य वर्षित्वा सर्वान् पदार्थान् पुष्णाति तथा विद्याविनयाभ्यां सर्वान् पुष्णीत॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान तेजस्वी विद्वन्! आप जैसे सूर्य (विश्वेभिः) सब (धामभिः) धामों से (इन्द्रेण) धन के धारक (वायुना) बलवान् पवन के साथ (सोम्यम्) उत्तम ओषधियों में हुए (मधु) मीठे आदि गुण वाले रस को पीता है, वैसे (मित्रस्य) मित्र के सब स्थानों से सुन्दर ओषधियों के रस को (पिब) पीजिये॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे सूर्य सब पदार्थों से रस को खींच के वर्षा करके सब पदार्थों को पुष्ट करता है, वैसे विद्या और विनय से सब को पुष्ट करो॥१०॥

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    विषय

    वायुसहित सूर्य के जलपान के दृष्टान्त से राजा की ऐश्वर्यप्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) सूर्य के समान तेजस्विन्! (वायुना) वायु के समान अपने आक्रमण के प्रबल वेग से शत्रुओं को हिला देने वाले (इन्द्रेण) शत्रुघातक सेनापति और (विश्वेभिः) समस्त वीर पुरुषों के साथ मिल कर (मित्रस्य धामभिः) मित्र, स्नेही राजा के पदाधिकारियों सहित ( सोम्यम् ) राष्ट्र के ऐश्वर्य रूप (मधु) मधुर, भोग्य ऐश्वर्य को (पिब ) स्वीकार कर । सूर्य का ताप जैसे रसधारक वायु के साथ किरणों से जल पान कर लेता है उस प्रकार राजा मित्रों सहित सेनापति के बल से राष्ट्र का भोग्य अन्न आदि ऐश्वर्यं प्राप्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः । विश्वेदेवाः । विराड् गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    सौम्य मधु का पान

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = [अगि गतौ] निरन्तर प्रभु की ओर चलनेवाले । उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले जीव! तू (मित्रस्य) = अपने मित्र प्रभु के (धामभिः) = तेजों के उद्देश्य से (सोम्यम् मधु) = सौम्य मधु को (इन्द्रेण) = इन्द्र से, अर्थात् इन्द्र बनकर और (वायुना) = वायु से अर्थात् प्राणों की साधना से (पिब) = पान कर। २. गतमन्त्र में ' भरद्वाज' ने प्रभु को समिद्ध किया, उसकी ओर चला और अन्त में उसके प्रति अपना अर्पण किया, इस प्रकार वह प्रभु का 'सयुज-सखा'-साथ रहनेवाला मित्र बन गया। 'इस मित्र के तेजों को यह भारद्वाज भी प्राप्त करना चाहे' यह स्वाभाविक ही है। प्रभुभक्त प्रभु जैसा क्यों न बने ? ३. इन तेजों को प्राप्त करने के लिए ही मन्त्र में 'सोम्य मधु' के पान का उल्लेख [विधान] है। वीर्यशक्ति [semen] ही सोम है। यह अन्न का सारभूत होने से मधु कहा गया है। मधु [शहद] भी पुष्परसों का सार होता है। यह शक्ति शरीर में सुरक्षित होने पर मनुष्य को 'सौम्य' बनाती है तथा उसकी ज्ञानाग्नि को दीप्त करके उसे [स+उमा] ब्रह्मज्ञानसहित करती है, इसी से इसका नाम 'सौम्य' पड़ गया है । ४. इस सोम का पान करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य 'इन्द्र' बने, जितेन्द्रिय हो । इन्द्रियों का अधिष्ठाता इन्द्र ही सोम का पान करता है । ५. इन इन्द्रियों के वशीकरण व निर्दोषता के लिए प्राणों की साधना अत्यन्त उपयोगी है। वायुना प्राणों के द्वारा, प्राणायाम से ही इन्द्रियों के मल नष्ट होते हैं। साथ ही इस प्राणसाधना से वीर्य की ऊर्ध्वगति भी सिद्ध होती है और मनुष्य ऊर्ध्वरेतस् बन पाता है। यह रेतस् ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और यह साधक दीप्त बुद्धि को प्राप्त करके 'मेधातिथि' बन जाता है, निरन्तर मेधा की ओर चलनेवाला ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रियता व प्राणसाधना के द्वारा 'सोम्य मधु' [वीर्य] का पान करनेवाले बनें, जिससे अपने मित्र उस प्रभु के तेजों से तेजस्वी बन सकें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सूर्य जसा सर्व पदार्थांचा रस ओढून घेतो व पर्जन्याच्या रूपाने सर्व पदार्थांना बलवान करतो तसे विद्या व विनय यांनी तुम्ही सर्वांना बलवान करा.

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    विषय

    पुनश्‍च तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी विद्वान, जसा सूर्य (विश्‍वेभिः) समस्त (धामभिः) धामांतील (स्थान व प्रदेशातील) (इन्द्रेण) (वायुना) ऐश्‍वर्य व बलवान वायूच्या साह्याने (सोम्यम्) उत्तम औषधीचा (मधु) मधुर रस पितो, तसे आपण (मित्रस्य) या आमच्या रूपातील मित्रजनांनी दिलेला उत्तम औषधीचा रस (पिब) प्याः (घरी आलेल्या विद्वानाला मित्र मानून गृहस्थजनांनी श्रेष्ठ रसादी देऊन त्याचा आदर-सत्कार करावा)

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, जसा सूर्य सर्व पदार्थातील रस पुष्टिकारक करतो, तसे विद्वानांनी विद्या आणि विनयाने सर्वजनांना सुखी व आनंदित करावे. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as the sun, with the aid of All-sustaining air, drinks the sweet essence of all medicinal herbs, so should a learned person enjoy the essence of the medicinal herbs of his friend.

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    Meaning

    Agni, brilliant scholar and yajaka, just as the sun, by the currents of energy and the wind, drinks up the honey-sweets of soma from the world of nature, so should you, along with the sun and the green sunny haunts of nature and your friends and seats of sacred fire drink the honey-sweets of yajna-soma.

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    Translation

    O fire divine, may you enjoy the sweet devotional elixir in company of the lightning, wind and all other Nature's bounties from the sun's quarters. (1)

    Notes

    Somyam madhu, sweet Soina juice; also, sweet devotional elixir. Indrena, with lightning. Väyuna, with the wind. Viśvebhih, विश्वेभिः देवैः सह, with all the bounties of Nature. Mitrasya dhamabhiḥ, from the sun's quarters.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) অগ্নিতুল্য বর্ত্তমান তেজস্বী বিদ্বান্! আপনি যেমন সূর্য্য (বিশ্বেভিঃ) (ধামভিঃ) ধামগুলি দ্বারা (ইন্দ্রেণ) ধনের ধারক (বায়ুনা) বলবান্ পবন সহ (সোম্যম্) উত্তম ওষধিসমূহে হওয়া (মধু) মিষ্ট ইত্যাদি গুণযুক্ত রস পান করে, সেইরূপ (মিত্রস্য) মিত্রের সকল স্থান হইতে সৌম্য ওষধিসমূহের রসকে (পিব) পান করুন ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! তোমরা যেমন সূর্য্য সকল পদার্থগুলি হইতে রসকে আকর্ষণ করিয়া বর্ষার সকল পদার্থসমূহকে পুষ্ট করে, সেইরূপ বিদ্যা ও বিনয় দ্বারা সকলকে পুষ্ট কর ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিশ্বে॑ভিঃ সো॒ম্যং মধ্বগ্ন॒ऽইন্দ্রে॑ণ বা॒য়ুনা॑ ।
    পিবা॑ মি॒ত্রস্য॒ ধাম॑ভিঃ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিশ্বেভিরিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাড্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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