Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 33

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 83
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    136

    अ॒यंꣳ स॒हस्र॒मृषि॑भिः॒ सह॑स्कृतः समु॒द्रऽइ॑व पप्रथे।स॒त्यः सोऽअ॑स्य महि॒मा गृ॑णे॒ शवो॑ य॒ज्ञेषु॑ विप्र॒राज्ये॑॥८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। स॒हस्र॑म्। ऋषि॑भि॒रित्यृषि॑ऽभिः। सह॑स्कृतः। सहः॑कृत॒ इति॒ सहः॑ऽकृतः। स॒मु॒द्रःऽइ॒वेति॑ समु॒द्रःऽइ॑व। प॒प्र॒थे॒ ॥ स॒त्यः। सः। अ॒स्य॒। म॒हि॒मा। गृ॒णे॒। शवः॑। य॒ज्ञेषु॑। वि॒प्र॒राज्य॒ इति॑ विप्र॒ऽराज्ये॑ ॥८३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयँ सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे । सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। सहस्रम्। ऋषिभिरित्यृषिऽभिः। सहस्कृतः। सहःकृत इति सहःऽकृतः। समुद्रःऽइवेति समुद्रःऽइव। पप्रथे॥ सत्यः। सः। अस्य। महिमा। गृणे। शवः। यज्ञेषु। विप्रराज्य इति विप्रऽराज्ये॥८३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 83
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यद्ययं सभेशो राजा राजर्षिभिः सह सहस्रमसङ्ख्यं ज्ञानं प्राप्तः सहस्कृतः सत्योऽस्त्यस्य महिमा समुद्र इव पप्रथे, तर्हि स प्रजाजनोऽहमस्य यज्ञेष विप्रराज्ये च शवो गृणे॥८३॥

    पदार्थः

    (अयम्) राजा (सहस्रम्) (ऋषिभिः) वेदार्थविद्भिः (सहस्कृतः) सहसा बलेन निष्पन्नः (समुद्र इव) सागर इवाऽन्तरिक्षमिव वा (पप्रथे) भवति (सत्यः) सत्सु व्यवहारेषु विद्वत्सु वा साधुः (सः) (अस्य) (महिमा) माहात्म्यम् (गृणे) स्तौमि (शवः) बलम् (यज्ञेषु) सङ्गतेषु राजकर्मसु (विप्रराज्ये) विप्राणां मेधाविनां राज्ये राष्ट्रे॥८३॥

    भावार्थः

    ये राजादयो राजजना विद्वत्सङ्गप्रियाः साहसिनः सत्यगुणकर्मस्वभावा मेधाविराज्येऽधिकृताः सङ्गतानि न्यायविनययुक्तानि कर्माणि कुर्युस्तेषामाकाशमिव कीर्तिर्विस्तीर्णा भवति॥८३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (अयम्) यह सभापति राजा (ऋषिभिः) वेदार्थवेत्ता राजर्षियों के साथ (सहस्रम्) असंख्य प्रकार के ज्ञान को प्राप्त (सहस्कृतः) बल से संयुक्त (सत्यः) और श्रेष्ठ व्यवहारों वा विद्वानों में उत्तम चतुर है (अस्य) इसका (महिमा) महत्त्व (समुद्रइव) समुद्र वा अन्तरिक्ष के तुल्य (पप्रथे) प्रसिद्ध होता है तो (सः) वह पूर्वोक्त मैं प्रजाजन इस राजा के (यज्ञेषु) संगत राजकार्यों और (विप्रराज्ये) बुद्धिमानों के राज्य में (शवः) बल की (गृणे) स्तुति करता हूं॥८३॥

    भावार्थ

    जो राजादि राजपुरुष विद्वानों के सङ्ग में प्रीति करनेवाले, साहसी, सत्यगुण-कर्म-स्वभावों से युक्त बुद्धिमान् के राज्य में अधिकार को पाये हुए संगत, न्याय और विनय से युक्त कामों को करें, उनकी आकाश के सदृश कीर्ति विस्तार को प्राप्त होती है॥८३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भावार्थ

    ( अयम् ) यह राजसभाध्यक्ष (सहस्रम् ऋषिभिः) सहस्र मन्त्रार्थ वेत्ता विद्वानों के साथ (सहस्कृतः ) बलवान् होकर (समुद्र इव ) समुद्र के समान गम्भीरता आदि गुणों में विख्यात है । (यज्ञेषु) नाना राजकार्यों और (विप्रराज्ये) मेधावी, बुद्धिमान् विद्वानों के राज्य में (अस्य) उसकी (सत्य: महिमा) सत्य महिमा और (शवः) बल का (गृणे) वर्णन किया जाता है । (२) अथवा – (अयं ) यह (ऋषिभिः) यथार्थ तर्कशील विद्वानों के द्वारा (सहस्रं सहस्कृतः) हजारों ज्ञानों और बलों से युक्त है । (अस्य स: महिमा समुद्र इव पप्रथे ) इसकी महिमा समुद्र के समान बढ़ती है । मैं (यज्ञेषु विप्रराज्ये शवः गृणे) प्रजाजन यज्ञों और विद्वानों के राज्य में इसके बल की स्तुति करूं । 'सहस्रम् ' – सहस्र कृत्वः इत्युवटः । सहस्रैः ऋषिभिरिति सायणः । सहस्रसंख्यं ज्ञानं प्राप्तः इति दयानन्दः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः । विश्वेदेवा देवताः । निचृत् पंक्ति । पंचमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु ही सत्य

    पदार्थ

    १. संसार में कभी-कभी इस प्रकार के व्यक्ति भी दिख जाते हैं, जिनके लिए वेद कहता है कि ('तितिक्षन्ते अभिशस्तिं जनानाम्') = लोगों के अपशब्दों को मुस्कराते हुए सह = लेते हैं। 'ऐसा वे क्यों कर पाते हैं?' इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र में इन शब्दों में दिया है कि (ऋषिभिः) = इन तत्त्वदर्शी लोगों ने (सहस्त्रम्) = [स+हस्] मुस्कराहट के साथ (अयम्) = यह प्रभु (सहस्कृतः) = अपना बल बनाया है। प्रभु का स्मरण करनेवाला वाग्बाणों से घायल नहीं होता। २. वे प्रभु (समुद्रः इव) = अन्तरिक्ष की भाँति (पप्रथे) = विस्तृत हैं। जहाँ आकाश, वहाँ प्रभु। वे प्रभु सर्वत्र है। सबमें विद्यमान हैं । ३. (सत्यः सः) = वे प्रभु ही सत्य हैं। प्रभु के अंतिरिक्त सभी अस्थिर हैं, एकमात्र प्रभु ही स्थिर व एकरस हैं। संसार परिवर्तनशील है, स्थल जल बनता है तो जल स्थल। जीव आज घोड़ा बना है तो कल हाथी और परसों मनुष्य । पूर्ण सत्य प्रभु ही हैं। ४. (अस्य) = इसकी (महिमा) = महिमा (गृणे) = मुझसे स्तुत होती है। मैं इस प्रभु की ही महिमा का स्तवन करता हूँ। (यज्ञेषु) = सब श्रेष्ठ कर्मों में (शवः) = वे प्रभु ही बल हैं। प्रभुकृपा से ही सब यज्ञपूर्ण होते हैं। सब यज्ञों के होता प्रभु ही हैं। (विप्रराज्ये) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवालों के जीवन की (राज्ये) = [राज्= दीप्तौ] दीप्ति में वस्तुतः उस प्रभु का ही (शवः) = बल है। जो भी व्यक्ति जितने अंश में चमकता है, यह सब चमक उस प्रभु की है। एवं, हमें अपने यज्ञों व दीप्तियों का गर्व न कर प्रभु के प्रति नतमस्तक होना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को हम अपनी ढाल बनाएँ। प्रभु को धारण करके यज्ञशील व दीप्तिमय बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे राजे व राजपुरुष वगैरे विद्वानांच्या संगतीने प्रेमळ, साहसी बनतात. सत्य गुण कर्म, स्वभावानेयुक्त, न्यायाने व विनयाने बुद्धिमानाच्या राज्यात प्रशंसा पदे प्राप्त करून कार्य करतात त्यांची कीर्ती आकाशाप्रमाणे पसरते.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (अयम्) हा सभापती राजा, (ऋषिभिः) वेदार्थवेत्ता राजर्षिजनांसह (सहस्रम्) अनेकप्रकारचे ज्ञान प्राप्त करतो तसेच हा (सहस्कृतः) शक्तीसंपन्न होऊन (सत्यः) श्रेष्ठ कर्म करण्यात अथवा विद्वानांशी चर्चा करण्यात चतुर आहे. (अस्य) अशा या राजाचे (महिमा) महत्त्व (समुद्रइव) समुद्राप्रमाणे वा अंतरिक्षा प्रमाणे असल्यामुळे त्याची कीर्ती (पप्रथे) सर्वप्रख्यात आहे. (सः) तो मी पूर्वोक्त प्रजाजन या राजाच्या (यज्ञेषु) उत्तम राज्यकार्यात आणि (विप्रराज्ये) बुद्धिमंतांच्या मंत्रणेने चालणार्‍या या राज्यात (शवः) बळ, सामर्थ्य (गृणे) वाढावे, अशी कामना करीत आहे. ॥83॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे राजा व राजपुरुष विद्वानांच्या संगती विषयी प्रीती करणारे, धाडसी, सत्य, गुण, कर्म स्वभावाचे असतात, बुद्धिमान वा न्याय-नीतीने चालणार्‍या त्या राज्यात, तशा लोकांना अधिकार दिले जातात व ते न्यायपूर्वक आणि विनयाने योग्य ती कार्यें करतात. त्या लोकांचे यश विशाल आकाशाप्रमाणे सर्वत्र प्रसार पावते. ॥83॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The King is endowed with innumerable branches of knowledge through sages, the knowers of the Vedas, possesses vast strength, and is famous for his noble actions, His greatness is spread vast like the ocean. I praise firmness in the administration of the wise and well-organised government functions.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    This ruler, taught, trained, strengthened and fortified by seers and sages shines and rises a thousand ways like the sea. Great and true is his power and glory which I celebrate in the priest-like projects of his reign of piety.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He, with His might augmented by sages and seers, attains thousandfold fame, which becomes vast as an ocean. His true magnanimity is glorified at the solemn ceremonies and at the places where pious per- sons are held in esteem (1)

    Notes

    Sahasram, thousand fold. Sahaskrtaḥ, his might aug mented. Satyaḥ, true. Mahima, might; grandeur; greatness. Grae,स्तौमि, स्तूयते, I praise; is praised. Savaḥ, बलं, might. Vipraräjye, मेधाविनां राष्ट्रे , in a kingdom of wise persons.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি (অয়ম্) এই সভাপতি রাজা (ঋষিভিঃ) বেদার্থবেত্তা রাজর্ষীদিগের সহ (সহস্রম্) অসংখ্য প্রকারের জ্ঞানপ্রাপ্ত (সহস্কৃতঃ) বল সহ সংযুক্ত (সত্যঃ) এবং শ্রেষ্ঠ ব্যবহার বা বিদ্বান্দিগের মধ্যে সুচতুর । (অস্য) ইহার (মহিমা) মহিমা (সমুদ্রইব) সমুদ্র বা অন্তরিক্ষ সদৃশ (পপ্রথে) প্রসিদ্ধ হয় তাহা হইলে (সঃ) সেই পূর্বোক্ত আমি প্রজা এই রাজার (য়জ্ঞেষু) সঙ্গত রাজকার্য্য এবং (বিপ্ররাজ্যে) বুদ্ধিমানদিগের রাজ্যে (শবঃ) বলের (গৃণে) স্তুতি করি ॥ ৮৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব রাজাদি রাজপুরুষ বিদ্বান্দিগের সঙ্গে প্রীতিসম্পন্ন, সাহসী, সত্যগুণ, কর্ম্ম, স্বভাবযুক্ত বুদ্ধিমানের রাজ্যে অধিকার প্রাপ্ত সঙ্গত ন্যায় ও বিনয় দ্বারা যুক্ত কর্ম্ম করিবে তাহাদের আকাশ সদৃশ কীর্ত্তি বিস্তার লাভ করে ॥ ৮৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ংꣳ স॒হস্র॒মৃষি॑ভিঃ॒ সহ॑স্কৃতঃ সমু॒দ্রऽই॑ব পপ্রথে ।
    স॒ত্যঃ সোऽঅ॑স্য মহি॒মা গৃ॑ণে॒ শবো॑ য়॒জ্ঞেষু॑ বিপ্র॒রাজ্যে॑ ॥ ৮৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়মিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃৎসতঃ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top