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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 85
    ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - विराड् बृहती स्वरः - मध्यमः
    136

    आ नो॑ य॒ज्ञं दि॑वि॒स्पृशं॒ वायो॑ या॒हि सु॒मन्म॑भिः।अ॒न्तः प॒वित्र॑ऽउ॒परि॑ श्रीणा॒नोऽयꣳ शु॒क्रोऽअ॑यामि ते॥८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। य॒ज्ञम्। दि॒वि॒स्पृश॒मिति॑ दिवि॒ऽस्पृश॑म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। या॒हि। सु॒मन्म॑भि॒रिति॑ सु॒मन्म॑ऽभिः ॥ अ॒न्तरित्य॒न्तः। प॒वित्रे॑। उ॒परि॑। श्री॒णा॒नः। अ॒यम्। शु॒क्रः। अ॒या॒मि॒। ते॒ ॥८५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो यज्ञन्दिविस्पृशँवायो याहि सुमन्मभिः । अन्तः पवित्रऽउपरि श्रीणानोयँ शुक्रो अयामि ते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। यज्ञम्। दिविस्पृशमिति दिविऽस्पृशम्। वायोऽइति वायो। याहि। सुमन्मभिरिति सुमन्मऽभिः॥ अन्तरित्यन्तः। पवित्रे। उपरि। श्रीणानः। अयम्। शुक्रः। अयामि। ते॥८५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 85
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे वायो राजन्! यथाऽहमन्तः पवित्र उपरि श्रीणानोऽयं शुक्रः सन् सुमन्मभिस्ते दिविस्पृश यज्ञमयामि तथा त्वं नो दिविस्पृशं यज्ञमायाहि॥८५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) सङ्गतं व्यवहारम् (दिविस्पृशम्) विद्याप्रकाशयुक्तम् (वायो) वायुवद्वर्त्तमान (याहि) प्राप्नुहि (सुमन्मभिः) शोभनैर्विज्ञानैः (अन्तः) आभ्यन्तरे (पवित्रः) शुद्धात्मा (उपरि) उत्कर्षे (श्रीणानः) आश्रयं कुर्वाणः (अयम्) (शुक्रः) आशुकर्त्ता वीर्य्यवान् (अयामि) प्राप्नोमि (ते) तव॥८५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यादृशेन वर्त्तमानेन वृत्तेन राजा प्रजासु चेष्टेत तादृशेनैव भावेन प्रजा राजनि वर्त्तेत। एवमुभौ मिलित्वा सर्वं न्यायव्यवहारमलं कुर्याताम्॥८५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (वायो) वायु के तुल्य वर्त्तमान राजन्! जैसे मैं (अन्तः) अन्तःकरण में (पवित्रः) शुद्धात्मा (उपरि) उन्नति में (श्रीणानः) आश्रय करता हुआ (अयम्) यह (शुक्रः) शीघ्रकारी पराक्रमी हुआ (सुमन्मभिः) सुन्दर विज्ञानों से (ते) आपके (दिविस्पृशम्) विद्याप्रकाशयुक्त (यज्ञम्) संगत व्यवहार को (अयामि) प्राप्त होता हूं, वैसे आप (नः) हमारे विद्याप्रकाशयुक्त उत्तम व्यवहार को (आ, याहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये॥८५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वर्त्तमान वर्त्ताव से राजा प्रजाओं में चेष्टा करता है, वैसे ही भाव से प्रजा राजा के विषय में वर्त्ते। ऐसे दोनों मिल के सब न्याय के व्यवहार को पूर्ण करें॥८५॥

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    भावार्थ

    हे (वायो ) वायो ! वायु के समान प्रचण्ड वेग से शत्रुरूप वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ ! अथवा, छाज से गिरते अन्न को वेग से पवित्र करने हारे वायु के समान विवेकवान् ! वायो ! तू (सुमन्मभिः) उत्तम ज्ञानों सहित (नः) हमारे ( दिविस्पृशम् ) राजसभा में आश्रित, विद्या प्रकाश से युक्त ( यज्ञम् ) राज्य- पालन के कार्य, या प्रजापति पद को (आयाहि) प्राप्त हो । ( पवित्रे अन्तः उपरि ) पावन या शोधन करने वाले छाज पर जिस प्रकार अन्न रहता उसी प्रकार ( पवित्रे) शुद्ध सदाचार युक्त एवं प्रजा को पवित्र करने वाले तुझ पर ( अयम् ) यह ( शुक्रः) शुद्ध किरणों वाले सूर्य के समान विद्वान् वेदज्ञ पुरुष (श्रीणान) अधिष्टित हैं । इसी कारण मैं प्रजाजन (ते अयामि) तुझ बलबान् राजा के शरण आता हूँ । अर्थात् जिस प्रकार छाज पर से अन्न गिरता है, वायु उसको पवित्र करता, उसके भी ऊपर सूर्य का प्रकाश रहता है उसी प्रकार प्रजा पालन के कार्य में विवेकी सभाध्यक्ष और उस पर भी सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष हो । प्रजा उसके अधीन रहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः । वायुर्देवता । बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    जमदग्नि

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं- हे (वायो) = निरन्तर क्रियाशील जीव ! [वा = गति] तू (नः) = हमारे (यज्ञम्) = यजुर्वेद में प्रतिपादित इस यज्ञरूप कर्म को (आयाहि) = सर्वथा प्राप्त हो। यह यज्ञरूप कर्म (दिविस्पृशम्) = तुझे द्युलोक को स्पर्श करानेवाला है। यज्ञों से तू स्वर्ग को प्राप्त करेगा। इन यज्ञों को तूने (सुमन्मभिः) = उत्तम ज्ञानों के साथ प्राप्त होना [ मन्= अवबोध ] । ज्ञानशून्य यज्ञों में तो अपवित्रता के आने की आशंका है। वायु ऋषि को प्रभु ने यजुर्वेद का ज्ञान दिया और कहा कि इस ज्ञान के साथ चलनेवाले 'दिविस्पृश' यज्ञों को तू निरन्तर करनेवाला बनना। २. अब वायु प्रभु को उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे पित: ! मैं [क] (अन्तः पवित्रः) = अन्दर से पवित्र बनता हुआ [ख] (उपरि श्रीणानः) = बाहरी जीवन को कुछ तपस्वी बनाता हुआ, परिपक्व करता हुआ [ग] (अयम्) = यह मैं (शुक्र) = [ शुक् गतौ ] निरन्तर क्रियाशील बनता हुआ और परिणामतः [शुच् दीप्तौ] दीप्त होता हुआ (ते आयामि:) = आपके समीप [अय गतौ, व्यत्यय से परस्मैपद] आता हूँ। प्रभु ने जीव को ज्ञानपूर्वक यज्ञों को अपनाने के लिए कहा था, जीव उसका बड़ी सुन्दरता से उत्तर देता हुआ कहता है कि मैं पवित्रता, तप, क्रियाशीलता व दीप्ति का समन्वय करता हुआ अवश्य आपके समीप प्राप्त होनेवाला बनूँगा । अन्दर की पवित्रता के लिए बाह्य तप आवश्यक है। उसके बिना जीवन विलासी बनेगा न कि पवित्र । दीप्ति के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है। यहाँ 'शुक्र' शब्द में दोनों का भाव निहित है। इस प्रकार के जीवनवाला व्यक्ति अन्त तक 'जमदग्नि' = जीमनेवाली अग्निवाला, अर्थात् ठीक जठराग्निवाला बना रहता है। इसका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जमदग्नि के जीवन में यज्ञ, ज्ञान, पवित्रता, तप, क्रियाशीलता व दीप्ति की साधना निरन्तर चलती है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा जसा प्रजेशी वागतो तसे प्रजेनेही राजाशी वागावे. अशा प्रकारे दोघंनी मिळून न्यायी बनावे.

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    विषय

    पुनश्‍च, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (वायो) वायूप्रमाणे (वेगाने कार्य करणारे) राजन्, ज्याप्रमाणे मी (एक प्रजाजन) अन्तःकरणाने (पवित्रः) शुद्धात्मा असून (उपरि) उन्नतीच्या मार्गाचा (श्रीणानः) आश्रय घेत (अयम्) या माझ्या (शुक्रः) शीघ्र पराक्रम व परिणाम करणार्‍या (सुमन्मभिः) उत्तम वैज्ञानिक साधनांनी (ते) आपल्या (दिविस्पृशम्) विद्या-विज्ञानयुक्त (यज्ञम्) संगती वा ऐक्य साधणार्‍या कार्यासाठी (अयामि) आपणास प्राप्त होत आहे (आपणास विद्या-विज्ञान उन्नती कार्यात सहकार्य करीत आहे) त्याप्रमाणे हे राजा, आपणही (नः) आम्हा प्रजाजनांच्या विद्या-विमान विषयक कार्यासाठी (आ, याहि) आमच्याकडे या. ॥85॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसा एक राजा आपल्या सद्व्यवहाराने प्रजेशी वागतो, त्याच भावनेने प्रजाजनांनीदेखील राजाशी वागले पाहिजे. याप्रकारे दोघांनी मिळून सर्व न्यायपूर्ण कार्यें करावीत. ॥85॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king, quick like air, just as I, internally pure, believing in progress, active and valorous, with nice store of knowledge, attend thy literary conclaves, so shouldst thou ours.

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    Meaning

    Vayu, ruler of the winds and power, come and grace our yajna with precious gifts of knowledge and science so that the flames of fire may rise and reach the heights of heaven, and I, this devotee of the holy fire, inward purified, upward expansive with the flames, mentally shining and spiritually crystallized may come to you.

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    Translation

    Come, O Lord of vitality, to our heaven-reaching prayer with its beautiful hymns of praise. This bright elixir of devotion has been kept aside and poured out for you through the purifying strainer. (1)

    Notes

    Vãyo, O Lord of vitality. O king, mighty as wind (Dayā. ). Ã yāhi, may you come. Divispṛśam yajñam, our sacrifice that touche the heaven, i. e. magnificent. Sumanmabhih, सुमनसै: संकल्पै:, withpious resolves. Antaḥ pavitre, in the strainer. Sukraḥ, Soma juice; elixir of devotion. Śrīnānaḥ, निषिच्यमान:, being poured out. Ayāmi, प्रापयामि, I offer to you.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (বায়ো) বায়ু তুল্য বর্ত্তমান রাজন্ ! যেমন আমি (অন্তঃ) অন্তঃকরণে (পবিত্রঃ) শুদ্ধাত্মা (উপরি) উন্নতিতে (শ্রীণানঃ) আশ্রয় করিয়া (অয়ম্) এই (শুক্রঃ) শীঘ্রকারী পরাক্রমী (সুমন্মভিঃ) সম্যক্ বিদ্বান্দিগের দ্বারা (তে) আপনার (দিবিস্পৃশম্) বিদ্যা প্রকাশযুক্ত (য়জ্ঞম্) সঙ্গত ব্যবহারকে (অয়ামি) প্রাপ্ত হই সেইরূপ আপনি (নঃ) আমাদের বিদ্যা প্রকাশযুক্ত উত্তম ব্যবহারকে (আ, য়াহি) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হউন ॥ ৮৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বর্ত্তমান আচরণ দ্বারা রাজা প্রজাদিগের মধ্যে চেষ্টা করেন সেইরূপ ভাব দ্বারা প্রজা রাজার বিষয়ে আচরণ করুক । এইভাবে উভয়ে মিলিয়া সকল ন্যায়–ব্যবহারকে পূর্ণ করিবে ॥ ৮৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ নো॑ য়॒জ্ঞং দি॑বি॒স্পৃশং॒ বায়ো॑ য়া॒হি সু॒মন্ম॑ভিঃ ।
    অ॒ন্তঃ প॒বিত্র॑ऽউ॒পরি॑ শ্রীণা॒নো᳕ऽয়ꣳ শু॒ক্রোऽঅ॑য়ামি তে ॥ ৮৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ নো ইত্যস্য জমদগ্নির্ঋষিঃ । বায়ুর্দেবতা । বিরাড্ বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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