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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 28
    ऋषिः - गौरिवीतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    121

    आ तत्त॑ऽइन्द्रा॒यवः॑ पनन्ता॒भि यऽऊ॒र्वं गोम॑न्तं॒ तितृ॑त्सान्।स॒कृ॒त्स्वं] ये पु॑रुपु॒त्रां म॒ही स॒हस्र॑धारां बृह॒तीं दुदु॑क्षन्॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। तत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। आ॒यवः॑। प॒न॒न्त॒। अ॒भि। ये। ऊ॒र्वम्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। तितृ॑त्सान् ॥ स॒कृ॒त्स्व᳕मिति॑ सकृ॒त्ऽस्व᳕म्। ये। पु॒रु॒पु॒त्रामिति॑ पुरुपु॒त्राम्। म॒हीम्। स॒हस्र॑धारा॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधाराम्। बृ॒ह॒तीम्। दुदु॑क्षन्। दुधु॑क्ष॒न्निति॒ दुधु॑क्षन् ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तत्तऽइन्द्रायवः पनन्ताभि यऽऊर्वङ्गोमन्तन्तितृत्सान् । सकृत्स्वँये पुरुपुत्राम्महीँ सहस्रधाराम्बृहतीन्दुदुक्षन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तत्। ते। इन्द्र। आयवः। पनन्त। अभि। ये। ऊर्वम्। गोमन्तमिति गोऽमन्तम्। तितृत्सान्॥ सकृत्स्वमिति सकृत्ऽस्वम्। ये। पुरुपुत्रामिति पुरुपुत्राम्। महीम्। सहस्रधारामिति सहस्रऽधाराम्। बृहतीम्। दुदुक्षन्। दुधुक्षन्निति दुधुक्षन्॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र! य आयवः सकृत्स्वं पुरुपुत्रां सहस्रधारां बृहतीं महीं दुदुक्षन्, ये गोमन्तमूर्वमभितितृत्सान् ये च ते तदापनन्त तान् त्वं सततमुन्नय॥२८॥

    पदार्थः

    (आ) (तत्) राजकर्म (ते) तव (इन्द्र) राजन्! (आयवः) ये सत्यं यन्ति ते मनुष्याः प्रजाः। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम्॥ (निघं॰२।३) (पनन्त) प्रशंसेयुः (अभि) आभिमुख्ये (ते) (ऊर्वम्) हिंसकम् (गोमन्तम्) दुष्टा गाव इन्द्रियाणि यस्य तम् (तितृत्सान्) तर्दितुं हिंसितुमिच्छेयुः। लेट्। (सकृत्स्वम्) या सकृदेकवारं सूते ताम् (ये) (पुरुपुत्राम्) बहवोऽन्नादिव्यक्तिमन्तः पुत्रा यस्यास्ताम् (महीम्) महतीं भूमिम् (सहस्रधाराम्) सहस्रं धारा हिरण्यादयो यस्यान्तां यद्वा या सहस्रमसङ्ख्यातं प्राणिजातं धरति (बृहतीम्) विस्तीर्णाम् (दुदुक्षन्) दोग्धुमिच्छेयुः। अत्र वर्णव्यत्ययेन धस्य दः॥२८॥

    भावार्थः

    ये राजभक्ता दुष्टहिंसका एकवारे बहुफलपुष्पप्रदां सर्वधारिकां भूमिं दोग्धुं समर्थास्स्युस्तेराजकार्य्याणि कर्त्तुमर्हेयुः॥२८॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) राजन्! (ये) जो (आयवः) सत्य को प्राप्त होनेवाले प्रजा जन (सकृत्स्वम्) एक बार उत्पन्न करनेवाली (पुरुपुत्राम्) बहुत अन्नादि व्यक्तिवाले पुत्रों से युक्त (सहस्रधाराम्) असंख्य सुवर्णादि धातु जिसमें धारारूप हों वा असंख्य प्राणिमात्र को धारण करनेहारी (बृहतीम्) विस्तारयुक्त (महीम्) बड़ी भूमि को (दुदुक्षन्) दोहना चाहें अर्थात् उससे इच्छापूर्ति किया चाहें (ये) जो मनुष्य (गोमन्तम्) खोटे इन्द्रियोंवाले लम्पट (ऊर्वम्) हिंसक जन को (अभि, तितृत्सान्) सम्मुख होकर मारने की इच्छा करें और जो (ते) आपके (तत्) उस राजकर्म की (आ, पनन्त) प्रशंसा करें, उनकी आप उन्नति किया कीजिये॥२८॥

    भावार्थ

    जो लोग राजभक्त दुष्टहिंसक एक बार में बहुत फल-फूल देने और सबको धारणकरने वाली भूमि के दुहने को समर्थ हों, वे राजकार्य करने के योग्य होवें॥२८॥

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    विषय

    राजा की स्तुति प्रजाओं को समृद्ध बनाने में है । पक्षान्तर में आचार्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (ये) जो लोग ( ऊर्ध्वम् ) हिंसक, दुष्ट, ( गोमन्तम् ) भूमि के मालिक को ( तितृत्सान् ) मारना चाहते हैं और जो ( पुरुपुत्राम् ) बहुत से पुत्रों वाली, ( सकृत्स्वम् ) एक ही बार बहुत अन्नादि उत्पन्न करने में समर्थ, (महीम् ) भूमि को और (सहस्रधाराम् ) सहस्त्रों को धारण पोषण करने वाली भूमि या सहस्रों धाराओं से वर्षण करने वाली, ( बृहतीम् ) विशाल द्यौ को ( दुदुक्षन् ) गौ के समान दोह लेना चाहते हैं अर्थात् जो उसके ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेने के इच्छुक हैं वे (आयवः) मनुष्य (ते) तेरे ( तत् ) उस विजय और प्रजापालन के कार्य की निरन्तर स्तुति करते हैं। ( ये ऊर्व गोमन्तं तितृत्सान् ) जो आंगिरस लोग प्राप्त हुए गो संघ को मारना चाहते हैं, यह सायणकृत अर्थ था । (ये गोमन्तं उदकवन्तं ऊर्व अन्नं तितृत्सान् हिंसितुमिच्छति) जो पानी वाले अन्न अर्थात् सोम को मारना चाहते हैं । यह उवट और महीधर का असंगत है । (२) आचार्य पक्ष में — हे इन्द्र ! आचार्य ! (ये) जो ( गोमन्तम् ऊर्वम् ) वाणी के स्वामी अर्थात् विद्वान होकर भी हिंसक या दुष्ट पुरुष को जो नाश करना चाहते हैं और बहुत से शिष्य रूप पुत्रों वाली सहस्रों ज्ञानों का धारण और प्रदान करने वाली, बड़ी ( सकृत्स्वम् ) एक ही बार समस्त ज्ञान प्रकट करने वाली, ( बृहतीम् ) वेद वाणी को दोहना चाहते हैं वे (ते आ पनन्त) तेरी शरण आते हैं

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिः । इन्द्रः । भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे लोक दुष्ट व हिंसक लोकांना मारतात व सर्वांना धारण करणाऱ्या भूमीपासून फळे, फुले, अन्न, सुवर्ण इत्यादी प्राप्त करतात तेच लोक योग्य राज्यकारभार करू शकतात.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (इन्द्र) राजन्, (आयनः) सत्य प्रतीसाठी यत्न करणारे (यत्) जे प्रजाजन (सकृत्स्वम्) एकाच वेळी इच्छित पदार्थ उत्पन्न करणारी (म्हणजे एकदाच बी पेरणी केल्यानंतर पीक देणारी, सुपीक जमीन) (पुरुपुत्राम्) अन्न-धान्य बाळगणार्‍या अनेक पुत्रांची माताभूमी, तसेच (सहस्रधाराम्) असंख्य सुवर्ण आदी धातू देणारी अथवा अगणित प्राणिमात्राचे धारण-पोषण करणारी अशा (बृहतीम्) विशाल (महीम्) भूमीचे (दुदुक्षन्) गे प्रजा जन दोहन करु इच्छितात, (त्यांची आपण उन्नती करा, त्यांना सहाय्य द्या) या शिवाय (जे) जे जन (गोमन्तम्) खोटे वागणारे, कामी लोभी (ऊर्वम्) आणि हिंसक दुष्ट असतील, त्यांना (अभि, तितृत्सान्) सामोरे येऊन ठार करणारे वीजन असतील. ते वीरजन (ते) आपल्या राज्यशासनकर्माची (आ, पनन्त) प्रशंसा करतील, (आपल्याला दुष्ट निर्दालन कार्यात सहाय्य करतील) त्यांना आपण प्रेरणा व उन्नती द्या. ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे राजपुरुष राजभक्त असून एकाच वेळी अनेक फळे-फुले देणार्‍या या भूमीचे दोहन करण्यास आणि दुष्ट संहारकार्यात सक्षम असतील, ते राजकार्य संपन्न करण्यात यशस्वी ठरतील. ॥28॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O King, advance those persons who wish to utilise according to their desire, the Earth, which bears at one time many kinds of cereals, is the mother of many sons, the sustainer of numberless human beings, great, and lofty; who wish to kill the wicked, the voluptuous, and harmful persons in the front, and thus extol thy administration.

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    Meaning

    Indra, enlightened and powerful ruler, the people who are good and true, who wish to punish those who are cruel to the cow and the self-disciplined man of the wealth of cows, and who cultivate the vast, generous mother earth, sustainer of her many children and flowing with her gifts in a thousand streams — all these admire and advance your governance and administration.

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    Translation

    O resplendent Lord, those men praise you, who desire to press out divine elixir rich with milk, and who Want to milk the vast earth that bears only once, that has lots of sons and is watered by a thousand streams. (1)

    Notes

    Äyavaḥ, मनुष्या:, men. Pananta, praise you. Ürvam, सोमं, Soma juice; divine elixir. Gomantam, उदकवन्तं, क्षीरवन्तं वा,mixed with water or with milk. Titrtsan, हिंसितुमिच्छन्ति, wish to injure or harm. Also, who desire to press out (Soma juice). Sakṛtsvam, that which bears a child once only. enjoyments. Sahasradhārām, अनन्तभोगप्रदायिनीं, bestowing countless Duduksan,दोग्धुमिच्छन्ति, want to milk.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (ইন্দ্র) রাজন্! (য়ে) যাহারা (আয়বঃ) সত্যকে প্রাপ্ত করে সেই সব প্রজাগণ (সকৃৎস্বম্) এক বার উৎপন্নকারিণী (পুরুপুত্রাম্) বহু অন্নাদি ব্যক্তি সম্পন্ন পুত্র যুক্ত (সহস্রধারাম্) অসংখ্য সুবর্ণাদি ধাতু যন্মধ্যে ধারারূপ হয় অথবা অসংখ্য প্রাণিমাত্রকে ধারণকারিণী (বৃহতীম্) বিস্তারযুক্ত (মহীম্) বৃহৎ ভূমিকে (দুদুক্ষন্) দোহন করিতে ইচ্ছুক অর্থাৎ তদ্দ্বারা ইচ্ছাপূর্ত্তি করিতে চাহে (য়ে) যে সব মনুষ্য (গোমন্তম্) দুষ্ট ইন্দ্রিয়যুক্ত লম্পট (উর্বম্) হিংসক ব্যক্তিকে (অভি, তিতৃৎসান্) সম্মুখ হইয়া মারিতে ইচ্ছা করে এবং যাহারা (তে) আপনার (তৎ) সেই রাজকার্য্যের (আ, পনন্ত) প্রশংসা করে, তাহাদের আপনি উন্নতি করিতে থাকুন ॥ ২৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা রাজভক্ত দুষ্টহিংসক এক বারে বহু ফল-ফুলপ্রদা, সর্বধারিকা ভূমিকে দোহন করিতে সমর্থ হয় তাহারা রাজকার্য্য করিবার যোগ্য হইবে ॥ ২৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ তত্ত॑ऽইন্দ্রা॒য়বঃ॑ পনন্তা॒ভি য়ऽঊ॒র্বং গোম॑ন্তং॒ তিতৃ॑ৎসান্ ।
    স॒কৃ॒ৎস্বং᳕ য়ে পু॑রুপু॒ত্রাং ম॒হীᳬं স॒হস্র॑ধারাং বৃহ॒তীং দুদু॑ক্ষন্ ॥ ২৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ তদিত্যস্য গৌরিবীতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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