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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 68
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    131

    य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑।आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑त्॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑ ॥ आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒ꣳहोः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽतरा॑। अस॑त् ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो देवानाम्प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृडयन्तः । आ वोर्वाची सुमतिर्ववृत्यादँहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञः। देवानाम्। प्रति। एति। सुम्नम्। आदित्यासः। भवत। मृडयन्तः॥ आ। वः। अर्वाची। सुमतिरिति सुऽमतिः। ववृत्यात्। अꣳहोः। चित्। या। वरिवोवित्तरेति वरिवोवित्ऽतरा। असत्॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 68
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे आदित्यासः पूर्णविद्या यूयं यथा देवानां यज्ञो सुम्नं प्रत्येति तथा मृडयन्तो भवत। यथा वो वरिवोवित्तराऽर्वाची सुमतिराववृत्यादंहोश्चित् तथा सुखकारी असत्॥६८॥

    पदार्थः

    (यज्ञः) सङ्गन्तव्यः सङ्ग्रामादिव्यवहारः (देवानाम्) विदुषाम् (प्रति) (एति) प्राप्नोति (सुम्नम्) सुखं कर्त्तुम् (आदित्यासः) सूर्यवत्तेजस्विनः (भवत) अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (मृडयन्तः) सुखयन्तः (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाची) अस्मदभिमुखी (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (ववृत्यात्) आवर्त्तताम्। वृतु धातोर्लिङि विकरणात्मनेपदं व्यत्ययेन श्लुर्द्वित्वं च। (अंहोः) अपराधिनः (चित्) अपि (या) (वरिवोवित्तरा) यातिशयेन परिचरणलब्ध्री (असत्) स्यात्॥६८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्य देशस्य मध्ये पूर्णविद्या राजकर्मकराः स्युस्तत्र सर्वेषामेका मतिर्भूत्वा सुखमत्यन्तं वर्धेत॥६८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (आदित्यासः) सूर्यवत् तेजस्वी पूर्णविद्यावाले लोगो! जैसे (देवानाम्) विद्वानों का (यज्ञः) संगति के योग्य संग्रामादि व्यवहार (सुम्नम्) सुख करने को (प्रत्येति) उलटा प्राप्त होता है, वैसे (मृडयन्तः) सुखी करनेवाले (भवत) होवो। जैसे (वः) तुम्हारी (वरिवोवित्तरा) अत्यन्त सेवा को प्राप्त (अर्वाची) हमारे अनुकूल (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (आ, ववृत्यात्) अच्छे प्रकार वर्त्ते (अंहोः) अपराधी की (चित्) भी वैसे सुख करनेवाली हमारे अनुकूल बुद्धि (असत्) होवे॥६८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस देश में पूर्ण विद्यावाले राजकर्मचारी हों, वहां सबकी एकमति होकर अत्यन्त सुख बढ़े॥६८॥

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    विषय

    विजयी पुरुषों के लक्षण । इन्द्र का स्वरूप ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो । अ० ८ । ४ ॥

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    विषय

    यज्ञ-सुख

    पदार्थ

    १. (यज्ञः) = यज्ञ (देवानाम्) = देवों के प्रति = ओर (सुम्नम्) = सुख के रूप में होकर (एति) = वापस आ जाता है, अर्थात् यज्ञ का परिणाम जीवन का सुखी होना है। ('नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम') यज्ञ के अभाव में न इस लोक का कल्याण है, न परलोक का । ('स्वर्गकामो यजेत') = सुख की कामनावाला यज्ञ करे। यज्ञ सुख के रूप में लौट आता है। देवों का जीवन यज्ञमय होता है, परिणामतः वे सुखी होते हैं । २. ये देव आदित्य होते हैं। सब अच्छी वस्तुओं का आदान करने के कारण ये आदित्य हैं। प्रभु कहते हैं कि (आदित्यासः) = हे आदित्यो ! (मृडयन्तः) = सभी के जीवनों को सुखी बनाते हुए (भवत) = होवो | अपने जीवन को सुन्दर बनाकर ही सन्तुष्ट न हो जाओ औरों को भी सुखी करनेवाले होओ। ३. (वः) = तुम्हारी (सुमतिः) = कल्याणी (मति अर्वाची) [अर्वाङ् अञ्चति = अन्दर आती है] = हृदय तक पहुँचनेवाली आववृत्यात्- सर्वथा हो, अर्थात् आप ऐसे ढंग से लोगों को उपदेश दो कि तुम्हारी सुमति उनके हृदयों में बैठ जाए, हृदयंगम हो जाए। तुम्हारा उपदेश उनके हृदय को प्रभावित करनेवाला हो। ४. यह मति ऐसी हो कि (या) = जो ('अंहो: चित्') = पापी को भी (वरिवोवित्तरा) = अधिक-से-अधिक पूजा को प्राप्त करानेवाली (असत्) = हो। आपकी में प्रवृत्त हो इस मति को सुनकर पापी का हृदय भी इस प्रकार प्रभावित हो कि वह पूजा जाए । ५. इस प्रकार अपने उपदेश से सब बुराइयों की हिंसा करनेवाला 'कुथ हिंसायाम्' यह आदित्य 'कुत्स' कहलाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - इसने पाप को समाप्त कर डाला है। में परिवर्तित होकर यज्ञकर्ता के प्रति लौट किया हुआ यज्ञ सुख के रूप आता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या देशात पूर्ण विद्या प्राप्त केलेले राज्य कर्मचारी असतील तेथे सर्वांचे एकमत होऊन अत्यंत सुख वाढते.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (आदित्यासः) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असलेले पूर्ण विद्यावान लोकहो, ज्याप्रमाणे (देवानाम्) विद्वानांचा (यज्ञः) संगतिकारक (मिळून संयुक्तशक्ती, युक्ती वा नीतीने) केले जाणारे युद्ध आदी कार्य (सुम्नम्) सुख मिळविण्यासाठी (प्रत्येति) केले जातात, पण ते कर्म उलटे असूनही (युद्ध करणे, हत्या करणे वाईट कर्म असूनही) त्याचे परिणाम राजासाठी उपकारक होतात, त्याप्रमाणे आपण आम्हाला (मृडयन्तः) सुखी करणारे (भवत) व्हा. तसेच (वः) आपली (वरिवो वित्तरा) (दुःखी, संकटग्रस्ताचे सहाय्य करणारी (सचमतिः) बुद्धी (अर्वाची) आम्हाला अनुकूल असावी आणि (आ, ववृत्यात्) आमच्याशी चांगले आचरण करील, असे करा. तसेच (अहोः) कोणा (अपराधी वा विरोधी मनुष्याची) बुद्धीही चित्) देखील आम्हांसाठी सुखमय व अनुकूल (असत्) होईल, असे करा. ॥68॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्या देशात पूर्ण विद्यावान राजकर्मचारी असतात, तिथे सर्वांचे एकमत होऊन सुखाची पुष्कळ वृद्धी होते. ॥68॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Struggle is a source of happiness for the learned. O well-read scholars remain firm in happiness, Let your favour be directed towards us; which may bring us riches even from the sinful foe.

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    Meaning

    Powers of knowledge and brilliance, may the yajna and gatherings of noble sages bring us peace and prosperity. May the Adityas, eminent scholars, sages and blazing warriors be kind and gracious to us. The vision and wisdom of yours which abides with us right here may, we pray, be the harbinger of wealth and virtue more and ever more, and do good even to the sinner and save him.

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    Translation

    The sacrifice is pleasing to the enlightened ones. O suns, be bestowers of joy to us. Towards us, may your favour be inclined. Be our best deliverers from the sin. (1)

    Notes

    Same as VIII. 4.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (আদিত্যাসঃ) সূর্য্যবৎতেজস্বী পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত লোকেরা ! যেমন (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (য়জ্ঞঃ) সঙ্গতি যোগ্য সংগ্রামাদি ব্যবহার (সুম্নম্) সুখ করিতে (প্রত্যেতি) বিপরীত ভাবে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ (মৃডয়ন্তঃ) সুখকারী (ভবত) হও । যেমন (বঃ) তোমাদের (বরিবোবিত্তিরা) অত্যন্ত সেবা প্রাপ্ত (অর্বাচী) আমাদের অনুকূল (সুমতিঃ) উত্তম বুদ্ধি (আ, ববৃত্যাৎ) সম্যক্ প্রকার ব্যবহার কর (অংহোঃ) অপরাধীর (চিৎ) ও তদ্রূপ সুখকারী আমাদের অনুকূল বুদ্ধি (অসৎ) হউক ॥ ৬৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে দেশে পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত রাজকর্মচারী হয়, সেখানে সকলে একমতি হইয়া অত্যন্ত সুখ বৃদ্ধি করে ॥ ৬৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়॒জ্ঞো দে॒বানাং॒ প্রত্যে॑তি সু॒ম্নমাদি॑ত্যাসো॒ ভব॑তা মৃড॒য়ন্তঃ॑ ।
    আ বো॒ऽর্বাচী॑ সুম॒তির্ব॑বৃত্যাদ॒ꣳহোশ্চি॒দ্যা ব॑রিবো॒বিত্ত॒রাস॑ৎ ॥ ৬৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়জ্ঞ ইত্যস্য কুৎস ঋষিঃ । আদিত্যা দেবতাঃ । স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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