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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    मू॒र्द्धानं॑ दि॒वोऽअ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वैश्वान॒रमृ॒तऽआ जा॒तम॒ग्निम्।क॒विꣳ स॒म्राज॒मति॑थिं॒॑ जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्द्धान॑म्। दि॒वः। अ॒र॒तिम्। पृ॒थि॒व्याः। वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒ते। आ। जा॒तम्। अ॒ग्निम् ॥ क॒विम्। स॒म्राज॒मिति॑ स॒म्ऽराज॑म्। अति॑थिम्। जना॑नाम्। आ॒सन्। आ। पात्र॑म्। ज॒न॒य॒न्त॒। दे॒वाः ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धानन्दिवो अरतिम्पृथिव्या वैश्वानरमृतऽआ जातमग्निम् । कविँ सम्राजमतिथिञ्जनानामासन्ना पात्रञ्जनयन्त देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्द्धानम्। दिवः। अरतिम्। पृथिव्याः। वैश्वानरम्। ऋते। आ। जातम्। अग्निम्॥ कविम्। सम्राजमिति सम्ऽराजम्। अतिथिम्। जनानाम्। आसन्। आ। पात्रम्। जनयन्त। देवाः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 8
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    पदार्थ -
    प्राकृतिक देवों की अनुकूलता होने पर (देवा:) = 'माता, पिता, आचार्य व अतिथि' रूप देव (अग्निम्) = इस उन्नतिशील पुरुष को (आजनयन्त) = सर्वथा बना देते हैं। कैसा ? १. (दिवः मूर्धानम्) = ज्ञान दीप्ति का शिखर । ('मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद') = इस वचन के अनुसार उत्तम माता-पिता व आचार्य को प्राप्त करनेवाला पुरुष ज्ञानी बनता है। ज्ञान का ही परिणाम होता है कि वह २. (अरतिम् पृथिव्याः) = पार्थिव भोगों के प्रति रतिवाला नहीं होता। ज्ञान आसक्ति को नष्ट कर देता है। भोगों में लिप्त न होकर यह ज्ञानी ३. (वैश्वारनम्) = [विश्वनरहितम्] सब लोगों के हित में प्रवृत्त होता है। भोगप्रवण मनुष्य स्वार्थी हुआ करता है। ज्ञानी परमार्थ में ही आनन्द का अनुभव करता है ४. (ऋते आजातम्) = [ऋतम् एव अनुभवितुं जातम्] यह अपनी जीवन-यात्रा में सदा सत्य का पालन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों ऋत का ही अनुभव लेने के लिए यह पैदा हुआ हो । असत्य से यह सदा दूर रहता है, इसलिए ५. (अग्निम्) = आगे और आगे बढ़ता चलता , है, औरों को भी यह आगे ले चलता है। ६. आगे ले चलने के लिए (कविम्) = [कौति सर्वा विद्या :] सब विद्याओं का यह उपदेश करता है अथवा स्वयं आगे बढ़ने के लिए क्रान्तदर्शी बनता है, वस्तुओं की आपातरमणीयता से आकृष्ट नहीं होता। विषयों से आकृष्ट न होने के कारण ७. (सम्राजम्) = इसका जीवन बड़ा दीप्त व व्यवस्थित [regulated] होता है । ८. यह दीप्त व व्यवस्थित जीवनवाला 'विश्वामित्र' = सभी का स्नेही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि (जनानाम्) = लोगों का (अतिथिम्) = सातत्येन गमनवाला होता है। जहाँ भी दुःख देखता है वहीं पहुँच जाता है और उन लोगों का कल्याण करने का प्रयत्न करता है। ९. यह (आसन्) = मुख के द्वारा (पात्रम्) = रक्षा करनेवाला होता है, अर्थात् मुख के द्वारा दूसरों को ज्ञान देता हैं और उनमें उत्साह का सञ्चार करता है। यह सभी के हित में प्रवृत्त हुआ हुआ व्यक्ति सचमुच प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'विश्वामित्र' है। प्रस्तुत मन्त्र में उन्नति के कारणों का संकेत बड़ी सुन्दरता से किया गया है कि १. (देवा:) = प्राकृतिक देवों की अनुकूलता तो चाहिए ही २. प्रशस्त माता-पिता व आचार्य का मिलना भी अत्यन्त आवश्यक है। ३. और फिर ('अग्निम्') = उस व्यक्ति के अन्दर आगे बढ़ने की भावना का जागना भी नितान्त अपेक्षित है। इस भावना के जागे बिना किसी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं ।

    भावार्थ - भावार्थ- देवों की कृपा से हमारा जीवन मन्त्र - वर्णित बातों से युक्त होकर नव [नवीन] ही बन जाए और सबका स्तुत्य [नू स्तुतौ] हो सके।

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