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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 22
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ऽअभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः।म॒हत्तद् वृष्णो॒ऽअसु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पोऽअ॒मृता॑नि तस्थौ॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒तिष्ठ॑न्त॒मित्या॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वरो॑चि॒रिति॒ स्वऽरो॑चिः ॥ म॒हत्। तत्। वृष्णः॑। असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑प॒ इति॒ वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतिष्ठन्तम्परि विश्वेऽअभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः । महत्तद्वृष्णोऽअसुरस्य नामा विश्वरूपोऽअमृतानि तस्थौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आतिष्ठन्तमित्याऽतिष्ठन्तम्। परि। विश्वे। अभूषन्। श्रियः। वसानः। चरति। स्वरोचिरिति स्वऽरोचिः॥ महत्। तत्। वृष्णः। असुरस्य। नाम। आ। विश्वऽरूप इति विश्वऽरूपः। अमृतानि। तस्थौ॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    १. (आतिष्ठन्तम्) = जो केवल अपने में स्थित न होकर सबमें स्थित है [one who is not self-centred], उस सबमें विश्व में 'मैं' की भावना करनेवाले को, (विश्वे) = सब दिव्य गुण (परि अभूषन्) = समन्तात् अलंकृत करते हैं। स्वार्थ ही मनुष्य को 'असुर' राक्षस बना देता है। ('स्वेषु आस्येषु जुह्वतश्चेरुः') = ये अपने ही मुख में आहुति देने लगता है तो असुर बन जाता है। स्वार्थत्याग से दुर्गुणों का त्याग होता है और यह परार्थ में रत व्यक्ति दिव्य गुणों से सुभूषित हो जाता है। २. दिव्य गुणों से सुभूषित होकर यह (श्रियः वसानः) = श्री का धारण करनेवाला बनता है, इसका जीवन श्रीसम्पन्न होता है। पिछले मन्त्रों में यही तो कहा था कि यह अपनी श्री का दान करनेवाला बनता है तो इसके लिए द्युलोक व पृथिवीलोक श्रीसम्पन्न हो जाते हैं। ३. श्रीसम्पन्न बनकर यह आराम में नहीं फँस जाता। यह (चरति) = गतिशील होता है। इसका जीवन सदा पुरुषार्थमय बना रहता है। वस्तुतः पुरुषार्थ ने ही इसे श्रीसम्पन्न बनाया था। ४. (स्वरोचि:) = इस पुरुषार्थी व परार्थी पुरुष का जीवन (स्व) = आत्मा की (रोचि:) = कान्तिवाला होता है। इसे आत्मतेज प्राप्त होता है अथवा इसकी शोभा अपने जीवन किन्हीं अन्य सम्बन्धों के कारण यशस्वी हो, [स्व] से ही होती है, यह अपने बन्धुओं व ऐसी बात नहीं होती । ४. इस (वृष्णः) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाले (असुरस्य) = प्राणसाधना के द्वारा [असवः प्राणाः] सब वासनाओं को दूर फेंकनेवाले [असु क्षेपणे] इस विश्वरूप बननेवाले का तत् नाम यह यश (महत्) = महान् होता है। संसार में यह यश प्राप्त करता है। उस यश का यदि इसे कोई गर्व नहीं होता तो ५. (विश्वरूप:) = सारे संसार को ही 'मैं' के रूप में देखनेवाला 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनावाला यह (अमृतानि) = मोक्षसुखों में (आतस्थौ) = विराजमान होता है। आत्मा की दृष्टि से तो सब अमर हैं. यह बारम्बार जन्म न लेने से वस्तुतः ही अमर हो जाता है। सभी के साथ प्रेम करने के कारण यह इस मन्त्र का ऋषि विश्वामित्र' है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपनी 'मैं' को विस्तृत करके विश्वरूप बनें और परिणामत: अमर हो जाएँ।

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