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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 62
    ऋषिः - देवल ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    उपा॑स्मै गायता नरः॒ पव॑माना॒येन्द॑वे।अ॒भि दे॒वाँ२ऽइय॑क्षते॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। अ॒स्मै॒। गा॒य॒त॒। न॒रः॒। पव॑मानाय। इन्द॑वे। अ॒भि। दे॒वान्। इय॑क्षते ॥६२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवाँऽइयक्षते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। अस्मै। गायत। नरः। पवमानाय। इन्दवे। अभि। देवान्। इयक्षते॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 62
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि देवल है- देवों का लेनेवाला-दिव्य गुणों को अपने अन्दर बढ़ानेवाला । यह अपने को दिव्य गुणों का पुञ्ज बना पाया है, क्योंकि इसने प्रभु का उपासन किया है। यह कहता है कि २. हे (नरः) = अपने को उन्नतिपथ पर [नृ नये] लेचलनेवाले लोगो! (अस्मै) = इस प्रभु के लिए उपगायत - समीपता से गायन करो। घर में सब मिलकर बैठें और उस प्रभु का स्तवन करें। यही एकमात्र उपाय है जिससे कि हमारा जीवन बुराइयों से बचा रहता है। हम गुणों से युक्त होकर अपने जीवन को प्रभु-गुणगान से ही सुन्दर बना पाते हैं, अतः उस प्रभु के लिए गायन करो जो ३. (पवमानाय) = पवित्र करनेवाले हैं। प्रभु गुणगान से हमारा जीवन पवित्र बनेगा। प्रातः प्रभु के समीप बैठ, हम उसका गुणगान करें । ४. (इन्दवे) = शक्तिशाली प्रभुके लिए गुणगान करो। प्रभु का गुणगान हममें शक्ति भरेगा । ५. उस प्रभु का गान करो जो हमें (देवान् अभि इयक्षते) = देवों की ओर ले चलनेवाले हैं। प्रभु का गुणगान हमें प्रेरणा देगा और हमारे जीवन को दिव्य गुणों से भर देगा। दिव्य गुणों को प्राप्त करके हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'देवल' बनेंगे।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-उपासन के तीन लाभ हैं- 'पवित्रता, शक्ति व दिव्यता' ।

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