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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    आप॑श्चित्पिप्यु स्त॒र्यो̫ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्तऽइन्द्र। या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ऽअच्छा॒ त्वꣳहि धी॒भिर्दय॑से॒ वि वाजा॑न्॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑। चि॒त्। पि॒य्युः॒। स्त॒र्य्य᳕। न। गावः॑। नक्ष॑न्। ऋ॒तम्। ज॒रि॒तारः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒ ॥ या॒हि। वा॒युः। न। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। नः॒। अच्छ॑। त्वम्। हि। धी॒भिः। दय॑से। वि। वाजा॑न् ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपश्चित्पिप्यु स्तर्या न गावो नक्षन्नृतञ्जरितारस्तऽइन्द्र । याहि वायुर्न नियुतो नोऽअच्छा त्वँ हि धीभिर्दयसे वि वाजान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। चित्। पिय्युः। स्तर्य्य। न। गावः। नक्षन्। ऋतम्। जरितारः। ते। इन्द्र॥ याहि। वायुः। न। नियुत इति निऽयुतः। नः। अच्छ। त्वम्। हि। धीभिः। दयसे। वि। वाजान्॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    १. जब हम देववरण करके वासनाओं को दूर भगाते हैं तब (आप:) = रेतस् [ आप: रेतो भूत्वा ] (चित्) = निश्चय से (पिप्युः) = हमारा आप्यायन करते हैं। वीर्यशक्ति के द्वारा रोग कम्पित करके दूर भगा दिये जाते हैं। मन में दुर्भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती । वीर्यरक्षा से सब इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनती हैं, परिणामतः (गावः) = हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ (न स्तर्य:) = [ Sterilize ] वन्ध्या नहीं होतीं, ये उपजाऊ होती हैं। नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा इस वीर्य के द्वारा ही समिद्ध होती है । २. हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यशाली प्रभो ! सुरक्षित वीर्यवाले ये व्यक्ति (ते जरितारः) = तेरे स्तोता बनते हैं और (ऋतं नक्षन्) = ऋत को प्राप्त होते हैं। प्रभु-स्तवन करनेवाले व्यक्ति में सदा ऋत का अधिकाधिक पोषण होता है, सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इसका जीवन-मार्ग बड़ा नियमित हो जाता है। ३. (वायुः न) = वायु के समान (नियुतः) = निश्चय से ऋतमय कर्मों में लगे हुए (नः अच्छ) = हमारी ओर याहि प्राप्त होओ। वायु जैसे निरन्तर चल रही है, इसी प्रकार यह प्रभु का स्तोता निरन्तर कार्यों में लगा रहता है। इन निरन्तर क्रियाशील व्यक्तियों को प्रभु प्राप्त होते हैं। ४. हे प्रभो! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (धीभिः) = प्रज्ञानों व कर्मों से (वाजान्) = धनों व शक्तियों को (विदयसे) = विशेषरूप से देनेवाले होते हैं। हम प्रज्ञानों को प्राप्त करके उत्तम कर्मों में लगते हैं तो हमें धन भी प्राप्त होते हैं और शक्तियाँ भी । एवं धनों व शक्तियों को प्राप्त करके अपने जीवन को उत्तम बनानेवाला यह उत्तम निवासवाला 'वसिष्ठ' बनता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम रेतस्-रक्षा द्वारा अपना आप्यायन करनेवाले, शक्तिशाली ज्ञानेन्द्रियोंवाले,ऋत को प्राप्त, वायु की भाँति नियत कर्मों में व्याप्त, प्रज्ञानों व कर्मों से शक्ति व धनों को प्राप्त करनेवाले बनें।

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