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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 58
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    दस्रा॑ यु॒वाक॑वः सु॒ता नास॑त्या वृ॒क्तब॑र्हिषः।आ या॑तꣳ रुद्रवर्त्तनी॥ तं प्र॒त्नथा॑। अ॒यं वे॒नः॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दस्रा॑। यु॒वाक॑वः। सु॒ताः। नास॑त्या। वृ॒क्तब॑र्हिष॒ इति॑ वृ॒क्तऽब॑र्हिषः। आ। या॒त॒म्। रु॒द्र॒व॒र्त्त॒नी॒ऽइति॑ रुद्रवर्त्तनी ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः । आ यातँ रुद्रवर्तनी । तम्प्रत्नथाऽअयँवेनः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दस्रा। युवाकवः। सुताः। नासत्या। वृक्तबर्हिष इति वृक्तऽबर्हिषः। आ। यातम्। रुद्रवर्त्तनीऽइति रुद्रवर्त्तनी॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 58
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्र का देवता 'अश्विनौ' प्राणापान हैं। प्राणापान 'अश्विनौ' इसलिए कहलाते हैं कि ('न श्वः') = आज हैं और कल नहीं। अथवा 'अश् व्याप्तौ' ये सदा कार्यों में व्याप्त रहते हैं। प्राणापान कभी सोते नहीं । प्रस्तुत मन्त्र में इन्हें 'दस्रा, नासत्या व रुद्रवर्तनी' कहा गया है। ये [दसु उपक्षपे] सब मलों को उपक्षीण करनेवाले हैं। शरीर के मलों को क्षीण करके शरीर को नीरोग बनाते हैं। मन से राग-द्वेष को दूर भगाकर मानस शान्ति देते हैं और बुद्धि की मन्दता को नष्ट करके बुद्धि को सूक्ष्म करते हैं। ये 'नासत्या'= नासिका में रहनेवाले हैं। इनका व्यापार घ्राणेन्द्रिय में चलता है अथवा 'न असत्यौ' ये असत्य नहीं हैं, ये सत्य ही सत्य हैं। इनकी साधना मनुष्य के शरीर, मन व मस्तिष्क को सत्य व निर्मल बनाती है। ये प्राणापान 'रुद्रवर्तनी' हों, [रुद्र इति स्तोतृनाम - निघण्टौ ] स्तोता के मार्ग पर चलनेवाले हों, अर्थात् इनसे प्रभु के नामों का जप चले। मैं अपने श्वासोच्छ्वास के साथ प्रभु के नामों का स्मरण करूँ। २. मन्त्र में कहते हैं कि (दस्त्रा) = दोषों का उपक्षय करनेवाले (नासत्या) = नासिका में होनेवाले व सदा सत्य (रुद्रवर्त्तनी) = स्तोता के मार्ग पर चलनेवाले प्राणापानो! तुम इन सोमकणों को जो (सुताः) = तुम्हारे शरीर में उत्पन्न हुए हैं (आयातम्) = प्राप्त होओ। प्राणसाधना 'सोमरक्षा' का सर्वोत्तम साधन है। प्राणापान के अभ्यास से इस सोम की ऊर्ध्वगति होती है। ३. प्राणसाधना से सुरक्षित सोमकण 'युवाकवः' हैं [यु- मिश्रण - अमिश्रण], ये हमें मलों से पृथक् करके नीरोगता, शान्ति व बुद्धि की सूक्ष्मता से युक्त करते हैं। सब दुरितों से दूर करने और भद्र से मिलानेवाले ये ही हैं। दुरितों से दूर करते हुए ये सोमकण ('वृक्तबर्हिषः') हैं [वृक्त= purified वृक्तं बर्हिः यैः] ये हृदय को पवित्र करनेवाले हैं। हृदय की पवित्रता से ये सुरक्षित होते हैं। सुरक्षित हुए हुए ये हृदय को और अधिक निर्मल बनाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रस्तुत मन्त्र में मधुच्छन्दा की मधुर इच्छा यह है कि मेरे प्राण प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें।

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