अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 10
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । ब॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुष॑: ॥ रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥४७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । बध्नम् । अरुषम् । चरन्तम् । परि । तस्थुष: ॥ रोचन्ते । रोचना । दिवि ॥४७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 10
विषय - 'सूर्य, अग्नि, वायु, लोक, नक्षत्र'
पदार्थ -
१. उपासक लोग (ब्रध्नं युञ्जन्ति) = अपने मन को [असौ आदित्यो वै ब्रमनः] उस महान् आदित्य में लगाते हैं। उस सूर्य में प्रभु की महिमा को देखते हैं तथा अपने मस्तिष्करूप झुलोक में भी ज्ञान-सूर्य को उदित करने का प्रयत्न करते हैं। २. (अरुषम्) = अपने मन को [अग्निर्वा अरुषः] अग्नि में लगाते हैं। मन में प्रगतिशीलता की भावना को धारण करते हैं। ३. (चरन्तम्) = [वायुर्वे चरन्] मन को वायु में लगाते हैं। वायु की भाँति निरन्तर गतिशील होने का निश्चय करते हैं। ४. (परितस्थुषः) = [इमे लोका वै परितस्थुषः] इन चतुर्दिक अवस्थित लोकों में अपने मन को लगाते हैं। इन लोकों में प्रभु की महिमा को देखते हैं तथा सब लोगों के साथ मिलकर आगे बढ़ने की भावनाबाले होते हैं। ५. ये इन (रोचना) = नक्षत्रों में अपने मन को लगाते हैं, जोकि (दिवि रोचन्ते) = आकाश में चमकते हैं। इन नक्षत्रों में ये जहाँ प्रभु की महिमा को देखते हैं, वहाँ अपने अन्दर भी विज्ञान-नक्षत्रों को उदित करने के लिए यत्नशील होते हैं।
भावार्थ - हम अपने मनों को 'सूर्य-अग्नि-वायुलोक व नक्षत्रों में लगाने का ध्यान करें। अपने मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान के सूर्य व विज्ञान के नक्षत्रों को उदित करें। प्रगतिशीलता, निरन्तर गति तथा सर्वलोकहित की भावना को धारण करें।
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