अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 17
प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः। प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्वर्दृ॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यङ् । दे॒वाना॑म् । विश॑: । प्र॒त्यङ् । उत् । ए॒षि॒ । मानु॑षी: ॥ प्र॒त्यङ् । विश्व॑म् । स्व॑: । दृ॒शे ॥४७.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषीः। प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यङ् । देवानाम् । विश: । प्रत्यङ् । उत् । एषि । मानुषी: ॥ प्रत्यङ् । विश्वम् । स्व: । दृशे ॥४७.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 17
विषय - देव व मानव बनकर प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. हे सूर्य! तू (देवानां विश:) = प्रत्यक-देवों की प्रजाओं के प्रति गति करता हुआ (उदेषि) = उदित होता है, अर्थात् सूर्य का प्रकाश प्रजाओं को दिव्य गुणोंवाला व दैवी वृत्तिवाला बनाता है। सूर्य के प्रकाश में रहनेवाले लोग दिव्य गुणोंवाले बनते हैं। सूर्य का प्रकाश मन पर अत्यन्त स्वास्थ्यजनक प्रभाव डालता है। २. (मानुषी: प्रत्यङ् उदेषि) = मानव-प्रजाओं के प्रति गति करता हुआ तू उदित होता है। सूर्य का प्रकाश हमें मानुष बनाता है-'मत्वा कर्माणि सीव्यति'-विचारपूर्वक कर्म करनेवाला बनाता है। सूर्य के प्रकाश में विचरनेवाले व्यक्ति समझकर काम करते हैं। अथवा यह प्रकाश हमें मनुष्य बनाता है [मानुष Human] अक्रूरवृत्तिवाला बनाता है। सामान्यतः हिंसावृत्ति के पशु व असुर रात्रि के अन्धकार में ही कार्य करते हैं। सूर्य का प्रकाश उनके लिए प्रतिकूल होता है। ३. (स्व:दृशे) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति 'ब्रह्म' के दर्शन के लिए तू (विश्वं प्रत्यङ् ) = सबके प्रति गति करता हुआ उदय होता है। इस उदय होते हुए सूर्य के अन्दर द्रष्टा को प्रभु की महिमा का आभास मिलता है। यह सूर्य उसे प्रभु की विभूति के रूप में दिखता है।
भावार्थ - सूर्य का प्रकाश देव बनाता है, एक सच्चा मानव बनाता है और हमारे लिए यह प्रभु के दर्शन का आधार बनता है।
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