अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । इत् । हर्यो॑: । सचा॑ । सम्ऽमि॑श्ल: । आ । व॒च॒:ऽयुजा॑ ॥ इन्द्र॑: । व॒ज्री । हि॒र॒ण्यय॑: ॥४७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र इद्धर्योः सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । इत् । हर्यो: । सचा । सम्ऽमिश्ल: । आ । वच:ऽयुजा ॥ इन्द्र: । वज्री । हिरण्यय: ॥४७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
विषय - वज्री हिरण्ययः
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (इत्) = निश्चय से (हर्योः) = इन्द्रियाश्वों को (संमिश्ल:) = हमारे साथ मिलानेवाले हैं। हमारे शरीर में प्रभु ही ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को जोतते हैं। ये इन्द्रियाश्व (सचा) = परस्पर मेलवाले हैं, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान के अनुसार कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं। ये इन्द्रियाश्व (आ) = सर्वथा (वचोयुजा) = वेदवाणी के अनुसार कर्मों में प्रवृत्त होनेवाले हैं। २. परिणामत: (इन्द्रः) = इन इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (वज्री) = क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए होता है और (हिरण्ययः) = ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाला होता है। क्रियाशीलता इसे शक्ति-सम्पन्न बनाती है और स्वाध्याय ज्ञान-सम्पन्न ।
भावार्थ - हम इस शरीर में कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मों को करते हुए शक्ति-सम्पन्न बनें। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ज्ञान-वृद्धि करते हुए ज्योतिर्मय जीवनवाले हों।
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