अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 12
के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥
स्वर सहित पद पाठके॒तुम् । कृ॒ण्वन् । अ॒के॒तवे॑ । पेश॑: । म॒र्या॒: । अ॒पे॒शसे॑ । सम् । उ॒षत्ऽभि॑: । अ॒जा॒य॒था॒: ॥४७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः ॥
स्वर रहित पद पाठकेतुम् । कृण्वन् । अकेतवे । पेश: । मर्या: । अपेशसे । सम् । उषत्ऽभि: । अजायथा: ॥४७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 12
विषय - प्रभुभक्त का जीवन
पदार्थ -
१. एक साधक (अकेतवे) = अज्ञानी के लिए (केतुं कृण्वन्) = ज्ञान को करनेवाला होता है। इसके जीवन का उद्देश्य ज्ञान प्रसार हो जाता है। हे (मर्या) = मनुष्यो! यह (अपेशसे) = न [पेशस् bright ness, lustre] दीसिवाले के लिए (पेश:) = दीप्ति को करनेवाला होता है। यह मनुष्यों को ज्ञान देकर उन्हें ठीक मार्ग पर ले-चलता है, उन्हें प्राकृतिक पदार्थों के यथायोग्य प्रयोग की प्रेरणा देता है तथा प्रीति से चलकर उन्नत होने की प्रेरणा देता हुआ उन्हें दीत जीवनवाला बनाता है। २. हे साधक! तू (उपद्धिः) = उषाकालों के साथ (सम् अजायथा:) = उठ खड़ा होता है [जन्-to rise, spring up] सूर्योदय के समय सोये न रहकर तू तेजस्वी बनता है। वह तेजस्विता ही तुझे अथक कार्य करने में समर्थ करती है।
भावार्थ - साधक [१] अज्ञानियों के लिए ज्ञान देनेवाला बनता है [२] अदीप्त जीवनवालों को दीत जीवनवाला बनाता है और [३] उष:काल में जागकर कार्यों में प्रवृत्त हो जाता है। यह प्रात:जागरणशील ज्ञानी पुरुष ही 'प्रस्कण्व' है-उत्कृष्ट मेधावी पुरुष है। यही अगले मन्त्रों का ऋषि है -
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