अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 21
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्य:। ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑क्त: । स॒प्त । शु॒न्ध्युव॑: । सुर॑: । रथ॑स्य । न॒प्त्य॑: ॥ ताभि॑: । या॒ति॒ । स्वयु॑क्तिऽभि: ॥४७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्य:। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुक्त: । सप्त । शुन्ध्युव: । सुर: । रथस्य । नप्त्य: ॥ ताभि: । याति । स्वयुक्तिऽभि: ॥४७.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 21
विषय - नप्त्य:-शुध्न्युवः
पदार्थ -
१. (सूर:) = सूर्य रथस्य हमारे शरीररूप रथों को (नप्त्यः) = न गिरने देनेवाली (सप्त) = सात (शन्ध्यवः) = शोधक किरणों को (अयुक्त) = रथ में जोतता है। सूर्य की किरणें सात रंगों के भेद से सात प्रकार की हैं। ये हमारे शरीरों में प्राणशक्ति का संचार करके हमारे शरीरों का शोधन करती हैं और उन शरीरों को गिरने नहीं देतीं। २. यह सूर्य (ताभिः) = उन (स्वयक्तिभिः) = अपने रथ में जुती हुई किरणरूप अश्वों के साथ (याति) = अन्तरिक्ष में आगे और आगे चलता है।
भावार्थ - सूर्य अपनी किरणों के साथ आगे और आगे चल रहा है। ये किरणें हमारे शरीरों में प्राणशक्ति का संचार करती है और उनका शोधन कर डालती हैं। सूर्य के समान वासनान्धकार का पूर्ण पराजय करनेवाला 'खिलम्' अगले सूक्त का ऋषि है [खिल् to vanquish completely]। यह प्रभु-स्तवन करता हुआ कहता है -
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