Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 16
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य। विश्व॒मा भा॑सि रोचन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒रणि॑: । वि॒श्वऽद॑र्शत: । ज्यो॒ति॒:ऽकृत् । अ॒सि॒ । सू॒र्य॒ ॥ विश्व॑म् । आ । भा॒सि॒ । रो॒च॒न॒ ॥४७.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्वमा भासि रोचन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तरणि: । विश्वऽदर्शत: । ज्योति:ऽकृत् । असि । सूर्य ॥ विश्वम् । आ । भासि । रोचन ॥४७.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    १. हे (सूर्य) = सूर्य ! तू (तरणि) = उदय होता हुआ रोगकृमियों के विनाश के द्वारा हमें रोगों से तारनेवाला है। (विश्वदर्शत:) = इसप्रकार तू सारे संसार का ध्यान करता है [विश्वं द्रष्टव्यं यस्य दृश् to look after], (ज्योतिष्कृत् असि) = तू सर्वत्र प्रकाश करनेवाला है। (विश्वम् रोचनम्) = सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को (आ भासि) = तु भासित करता है। २. सूर्य रोगकृमियों के विनाश के द्वारा शरीर को स्वस्थ करता है [तरणिः] मस्तिष्क को यह ज्योतिर्मय करता है [ज्योतिष्कृत्] हृदयान्तरिक्ष को सब मलिताओं से रहित करके चमका देता है। एवं, सूर्य के प्रकाश का प्रभाव 'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों पर पड़ता है। यह इन्हें नीरोग, निर्मल व दीप्त बनाता है।

    भावार्थ - उदय होता हुआ सूर्य 'शरीर, मन व मस्तिष्क' के स्वास्थ्य को प्राप्त कराता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top