अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
गि॒रा वज्रो॒ न संभृ॑तः॒ सब॑लो॒ अन॑पच्युतः। व॑व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रा । वज्र॑: । न । सम्ऽभृ॑त: । सऽब॑ल: । अन॑पऽच्युत: ॥ व॒व॒क्षे । ऋ॒ष्व: । अस्तृ॑त: ॥४७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरा वज्रो न संभृतः सबलो अनपच्युतः। ववक्ष ऋष्वो अस्तृतः ॥
स्वर रहित पद पाठगिरा । वज्र: । न । सम्ऽभृत: । सऽबल: । अनपऽच्युत: ॥ ववक्षे । ऋष्व: । अस्तृत: ॥४७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
विषय - सबल: अनपच्युतः
पदार्थ -
१. (गिरा) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियों के द्वारा (सम्भृत:) = हृदय में सम्यक् धारण किये गये प्रभु (वज्रः न) = वन के समान होते हैं। स्तोता के सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं का वे संहार करनेवाले होते हैं। (सबल:) = वे प्रभु सदा बल के साथ वर्तमान हैं। (अनपच्युत:) = किन्हीं भी शत्रुओं से स्थान-भ्रष्ट नहीं किये जा सकते। २. वे प्रभु (ऋष्व:) = महान् है (अस्तृत:) = अहिंसित हैं। किन्हीं भी शत्रुओं से प्रभु के हिंसित होने का सम्भव नहीं। ये प्रभु (ववक्षे) = उपासक के लिए सब आवश्यक धन आदि पदार्थों के प्राप्त कराने की कामनावाले होते है।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमारे लिए वज्र के समान होकर शत्रुओं का संहार करेंगे। वे हमें सब आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं। अगले तीन मन्त्रों के ऋषि 'मधुच्छन्दा: है -
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