अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 14
अप॒ त्ये ता॒यवो॑ यथा॒ नक्ष॑त्रा यन्त्य॒क्तुभिः॑। सूरा॑य वि॒श्वच॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । त्ये । ता॒यव॑: । य॒था॒ । नक्ष॑त्रा । य॒न्ति॒ । अ॒क्तुऽभि॑: ॥ सूरा॑य । वि॒श्वऽच॑क्षसे ॥४७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः। सूराय विश्वचक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठअप । त्ये । तायव: । यथा । नक्षत्रा । यन्ति । अक्तुऽभि: ॥ सूराय । विश्वऽचक्षसे ॥४७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 14
विषय - सूर्योदय-नक्षत्रविलय
पदार्थ -
१. (विश्वचक्षसे) = सबको प्रकाशित करनेवाले (सूराय) = सूर्य के लिए-मानो सूर्य के आगमन के लिए स्थान को रिक्त करने के उद्देश्य से ही (नक्षत्रा) = नक्षत्र (अक्तुभिः) = रात्रियों के साथ इसप्रकार (अपयन्ति) = दूर चले जाते हैं, (यथा) = जैसेकि रात्रियों के साथ (त्ये तायवः) = वे चोर चले जाते हैं। चोर रात्रि के अन्धकार में ही चोरी करते हैं। अन्धकार-विलय के साथ ये चोरी आदि कार्य समाप्त हो जाते हैं। २. हमारे जीवनों में भी ज्ञान-सूर्योदय होता है और वासना-अन्धकार का विलय हो जाता है। वासना-विनाश से ही सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के इच्छारूप नक्षत्र भी विलीन हो जाते हैं। ये भोग-इच्छाएँ ही तो हमारी शक्तियों का अपहरण करने के कारण चोरों के समान थीं। ज्ञान-सूर्योदय के होते ही ये समाप्त हो जाती हैं।
भावार्थ - जीवनों में ज्ञान-सूर्य के उदय होते ही भोग-इच्छारूप नक्षत्र अस्त हो जाते हैं।
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