अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 19
वि द्या॑मेषि॒ रज॑स्पृ॒थ्वह॒र्मिमा॑नो अ॒क्तुभिः॑। पश्यं॒ जन्मा॑नि सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठवि । द्याम् । ए॒षि॒ । रज॑: । पृ॒थु॒ । अह॑: । मिमा॑न: । अ॒क्तुभि॑: ॥ पश्य॑न् । जन्मा॑नि । सू॒र्य॒ ॥१७.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहर्मिमानो अक्तुभिः। पश्यं जन्मानि सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठवि । द्याम् । एषि । रज: । पृथु । अह: । मिमान: । अक्तुभि: ॥ पश्यन् । जन्मानि । सूर्य ॥१७.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 19
विषय - दिन-रात्रि का 'पालन-चक्र'
पदार्थ -
१. हे (सूर्य) = आकाश में निरन्तर सरण करनेवाले आदित्य! तू (द्याम्) = इस विस्तृत द्युलोक में (वि एषि) = विशेषरूप से प्राप्त होता है। द्युलोक में आकर (पृथुरजः) = इस विस्तृत अन्तरिक्षलोक में आगे और आगे बढ़ता है। इस गति के द्वारा (अक्तुभि:) = रात्रियों के साथ (अहः मिमान:) = दिनों का तू निर्माण करनेवाला होता है। २. इसप्रकार अपनी गति के द्वारा दिन-रात का निर्माण करता हुआ यह सूर्य (जन्मानि) = जन्म लेनेवाले प्राणियों को (पश्यन्) = देखता है-उनका पालन करता है [दुश् to look after] | दिन-रात्रि का यह चक्र हमारा सुन्दर निर्माण करता है। दिनभर की थकावट रात्रि में दूर हो जाती है। अकेला दिन व अकेली रात्रि मृत्यु ही है। दिन-रात्रि के क्रम के द्वारा सूर्य हमारा पालन करता है।
भावार्थ - सूर्य उदय होकर अन्तरिक्ष में आगे बढ़ता हुआ दिन व रात्रि के निर्माण द्वारा हमारा पालन करता है।
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