अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 11
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । हरी॒ इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ ॥ शोणा । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥४७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे ॥ शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥४७.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 11
विषय - 'विपक्षसा नृवाहसा' हरी
पदार्थ -
२. साधक लोग (रथम्) = शरीररूप रथ में (हरी) = अपने इन्द्रियाश्वों को (युञ्जन्ति) = जोतते हैं, अर्थात् इन्द्रियों को जीवन-यात्रा की पूर्ति का साधन बनाते हैं। इनको केवल चरने के लिए ही हर समय इधर-उधर भटकने से रोकते हैं। ये इन्द्रियाश्व (अस्य काम्या) = प्रभु-प्राप्ति की कामनावाले होते हैं। (विपक्षसा) = विशिष्ट परिग्रहवाले होते हैं-एक विशेष उद्देश्य को लिये हुए होते हैं। २. इस विशिष्ट उद्देश्य की ओर निरन्तर बढ़ने से ये (शोणा) = तेजस्वी तथा (धृष्ण) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बनते हैं और (नवाहसा) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोगों को लक्ष्य की ओर ले चलनेवाले होते हैं।
भावार्थ - हम इन्द्रियाश्नों को सदा चरने में ही न लगाएँ रक्खें। शरीर-रथ में जुतकर ये हमें आगे ले-चलें। इनके सामने एक विशिष्ट उद्देश्य हो-प्रभु-प्राप्ति की ये कामनावाले हों। तेजस्वी व शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हों। हमें लक्ष्य की ओर ले-चलें।
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