अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 6
इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से । आ । सूर्य॑म् । रो॒ह॒य॒त् । दि॒वि ॥ वि । गोभि॑: । अद्रि॑म् । ऐ॒र॒य॒त् ॥४७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । दीर्घाय । चक्षसे । आ । सूर्यम् । रोहयत् । दिवि ॥ वि । गोभि: । अद्रिम् । ऐरयत् ॥४७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 6
विषय - अविद्या-पर्वत का विदारण
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (दीर्घाय चक्षसे) = अन्धकार का विदारण करनेवाले विस्तृत प्रकाश के लिए (सूर्यम्) = सूर्य को (दिवि) = द्युलोक में (आरोहयत्) = आरूढ़ करते हैं। २. जिस प्रकार प्रभु बाह्य अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य को उदित करते हैं, इसी प्रकार (गोभिः) = ज्ञान की रश्मियों के द्वारा (अद्रिम्) = अविद्या-पर्वत को (वि ऐरयत्) = विशिष्टरूप से कम्पित करके विनष्ट करते हैं।
भावार्थ - प्रभु बाह्य आकाश में सूर्य का उदय करते हैं और अन्त:आकाश [मस्तिष्क] में ज्ञानरश्मियों का। इन ज्ञानरश्मियों को प्राप्त करके इनके अनुसार अपने कर्तव्यपालन में प्रसित पुरुष 'इरिम्बिठि' बनता है। क्रियाशीलता की भावना से युक्त हृदयान्तरिक्षवाला यही अगले तीन मन्त्रों का ऋषि -
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