अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
इन्द्रः॒ स दाम॑ने कृ॒त ओजि॑ष्ठः॒ स मदे॑ हि॒तः। द्यु॒म्नी श्लो॒की स सो॒म्यः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । स: । दाम॑ने । कृ॒त: । ओजि॑ष्ठ: । स: । मदे॑ । हि॒त: ॥ द्यु॒म्नी । श्लो॒की । स: । सो॒म्य: ॥४७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः स दामने कृत ओजिष्ठः स मदे हितः। द्युम्नी श्लोकी स सोम्यः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । स: । दामने । कृत: । ओजिष्ठ: । स: । मदे । हित: ॥ द्युम्नी । श्लोकी । स: । सोम्य: ॥४७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
विषय - 'इन्द्र' का लक्षण
पदार्थ -
१. (इन्द्रः सः) = इन्द्र वह है-इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव वह है जो (दामने) = इन्द्रियों के दमन के निमित्त (कृत:) = किया गया है जिसका ध्येय इन्द्रियों का वशीकरण है। यह (ओजिष्ठः) = ओजस्वितम बनता है-इन्द्रियविजय ही इसे ओजस्वी बनाता है। ओजस्विता के कारण (सः) = वह (मदे) = सोमरक्षण जनित उल्लास में (हित:) = स्थापित होता है। २. यह इन्द्र (द्युम्नी) = सुरक्षित सोम को ज्ञानाग्नि का इंधन बनाकर दीत ज्ञानज्योतिवाला होता है। (श्लोकी) = उत्तम कर्मों को करता हुआ यशस्वी होता है। (सः) = वह यशस्वी होता हुआ भी सोम्यः अत्यन्त शान्त, विनीत स्वभाववाला होता है।
भावार्थ - इन्द्र वह है जो इन्द्रियदमन को अपना ध्येय बनाता है। इन्द्रियदमन द्वारा ओजस्वी बनता है। सोम-रक्षण द्वारा उल्लासमय जीवनवाला होता है। ज्ञानज्योति को प्राप्त करके बड़े यशस्वी जीवनवाला होता है। इस सबके होते हुए अतिविनीत बनता है।
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