अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 9
ब्र॒ह्माण॑स्त्वा व॒यं यु॒जा सो॑म॒पामि॑न्द्र सो॒मिनः॑। सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्माण॑: । त्वा॒ । व॒यम् । यु॒जा । सो॒म॒ऽपाम् । इ॒न्द्र॒ । सो॒मिन॑: । सु॒तऽव॑न्त: । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥४७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्माणस्त्वा वयं युजा सोमपामिन्द्र सोमिनः। सुतावन्तो हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्माण: । त्वा । वयम् । युजा । सोमऽपाम् । इन्द्र । सोमिन: । सुतऽवन्त: । हवामहे ॥४७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 9
विषय - [ज्ञानी] सोमिनः [सोमरक्षक] सुतावन्तः [यज्ञशील]
पदार्थ -
१. (ब्रह्माण:) = ज्ञान को वाणियोंवाले (वयम्) = हम (युजा) = योग के द्वारा-चितवृत्ति-निरोध के द्वारा (त्वा) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (सोमिन:) = प्रशस्त सोमवाले-सोम को सुरक्षित करनेवाले हम (सोमपाम्) = सोम के रक्षक आपको पुकारते हैं। २. हे प्रभो। (सुतावन्तः) = प्रशस्त यज्ञोवाले हम आपको पुकारते हैं।
भावार्थ - प्रभु-प्राप्ति के तीन साधन हैं [१] ज्ञान को प्राप्त करना [२] सोम का रक्षण व [३] यज्ञशीलता। अगले तीन मन्त्रों का ऋषि मधुच्छन्दा: है-अत्यन्त मधुर इच्छाओंवाला। यह कहता है -
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