अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 7
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्। एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । सु॒सु॒म । हि । ते॒ । इन्द्र॑ । सोम॑म् । पिब॑ । इ॒मम् ॥ आ । इ॒दम् । ब॒र्हि: । स॒द॒: । मम॑ ॥४७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम्। एदं बर्हिः सदो मम ॥
स्वर रहित पद पाठआ । याहि । सुसुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् ॥ आ । इदम् । बर्हि: । सद: । मम ॥४७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 7
विषय - प्रभुको हृदयासन पर बिठाना
पदार्थ -
१. (आयाहि) = है प्रभो! आइए । (हि) = निश्चय से (ते) = आपकी प्राप्ति के लिए (सुषुम) = हमने सोम का सम्पादन किया है। इस सोम-रक्षण के द्वारा ही तो हम आपको प्राप्त कर पाएंगे। हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! आप (इमं सोमं पिब) = इस सोम का पान कीजिए। आपने ही वासना विनाश द्वारा हमें सोम-रक्षण के योग्य बनाना है। २. (इदम्) = इस (मम) = मेरे (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदयासन पर (आसदः) = आप विराजिए। आपके हृदय में आसीन होने पर वहाँ ज्ञान के प्रकाश में वासनाओं का अन्धकार विलीन हो जाता है।
भावार्थ - हम सोम-रक्षण द्वारा प्रभु-प्राप्ति के अधिकारी बनें। प्रभु को हृदयासन पर आसीन करके ही हम वासनान्धकार का विलय कर सकेंगे।
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