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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 15
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    अदृ॑श्रन्नस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑। भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदृ॑श्रन् । अ॒स्य॒ । के॒तव॑: । वि । र॒श्मय॑: । जना॑न् । अनु॑ ॥ भ्राज॑न्त: । अ॒ग्नय॑: । य॒था॒ ।४७.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदृश्रन् । अस्य । केतव: । वि । रश्मय: । जनान् । अनु ॥ भ्राजन्त: । अग्नय: । यथा ।४७.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    १. (अस्य) = इस उदित हुए-हुए सूर्य की (केतव:) = प्रकाश देनेवाली (रश्मयः) = किरणें जनान (अनु) = मनुष्यों का लक्ष्य करके (वि अदशन) = विशिष्टरूप से इसप्रकार दिखती हैं (यथा) = जैसेकि (भ्राजन्त: अग्नयः) = चमकती हुई अग्नियाँ। २. सूर्य के उदित होने पर जैसे सूर्य की किरणें सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाली होती है, उसी प्रकार हमारे जीवन में ज्ञान के सूर्य का उदय होता है और जीवन प्रकाशमय हो जाता है। यह प्रकाश देदीप्यमान अग्नि के समान हो जाता है। इसमें सब बुराइयाँ भस्म हो जाती हैं।

    भावार्थ - हमारे जीवन में ज्ञान के सूर्य का उदय हो और उसके प्रकाश में सब बुराइयों का अन्धकार विलीन हो जाए।

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