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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त

    इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जतं॒ न्यर्पयतं वृषणा तमो॒वृधः॑। परा॑ शृणीतम॒चितो॒ न्योषतं ह॒तं नु॒देथां॒ नि शि॑शीतम॒त्त्रिणः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । तप॑तम् । रक्ष॑: । उ॒ब्जत॑म् । नि । अ॒र्प॒य॒त॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । त॒म॒:ऽवृध॑: । परा॑ । शृ॒णी॒त॒म् । अ॒चित॑: । नि । ओ॒ष॒त॒म् । ह॒तम् । नु॒देथा॑म् । नि । शि॒शी॒त॒म् । अ॒त्त्रिण॑: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा तपतं रक्ष उब्जतं न्यर्पयतं वृषणा तमोवृधः। परा शृणीतमचितो न्योषतं हतं नुदेथां नि शिशीतमत्त्रिणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा । तपतम् । रक्ष: । उब्जतम् । नि । अर्पयतम् । वृषणा । तम:ऽवृध: । परा । शृणीतम् । अचित: । नि । ओषतम् । हतम् । नुदेथाम् । नि । शिशीतम् । अत्त्रिण: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इन्द्रासोमा) = हे इन्द्र और सोम-जितेन्द्रियता व सौम्यता के भाव! अथवा सोमशक्ति का रक्षण! आप (रक्षः तपतम्) = राक्षसीभावों को सन्तप्त कर डालो और उन्हें (उब्जतम्) = हिंसित कर दो। जितेन्द्रियता से अशुभ वृत्तियाँ दूर होती हैं और सोमरक्षण के द्वारा रोगों के कारणभूत रोगकृमियों का [रक्षः-अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमि] संहार होता है। हे (वृषणा) = हममें शक्ति का सेचन करनेवाले 'इन्द्र और सोम'! (तमोवृधः) = तमोगुण से वृद्धि को प्रास होनेवाले दुष्टभावों को (न्यर्पयतम्) = आप नीचे भेजो, अर्थात् पादाक्रान्त करके समाप्त कर दो। २. (अचितः) = अज्ञानों को (पराणीतम्) = सुदूर विनष्ट कर दो, (निओषतम्) = इन्हें निश्चय से जला दो, (हतम्) = मार डालो, (नुदेथाम्) = इन्हें परे धकेल दो। (अत्त्रिण:) = हमें खा-जानेवाली 'काम-क्रोध लोभ' की वृत्तियों को (निशिशीतम्) = नितरां क्षीण कर दो।

    भावार्थ -

    हम जितेन्द्रिय बनें, सोम का अपने में रक्षण करें। इससे हमारे 'काम-क्रोध लोभ' रूप शत्रु तो विनष्ट होंगे ही हमारे शरीर भी नीरोग बनेंगे। ये इन्द्र और सोम हमें खा जानेवाले हमारे शत्रुओं को क्षीण कर दें।

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