अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - जगती
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
अ॒द्या मु॑रीय॒ यदि॑ यातु॒धानो॒ अस्मि॒ यदि॒ वायु॑स्त॒तप॒ पूरु॑षस्य। अधा॒ स वी॒रैर्द॒शभि॒र्वि यू॑या॒ यो मा॒ मोघं॒ यातु॑धा॒नेत्याह॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द्य । मु॒री॒य॒ । यदि॑ । या॒तु॒ऽधान॑: । अस्मि॑ । यदि॑। वा॒ । आयु॑: । त॒तप॑ । पुरु॑षस्य । अध॑ । स: । वी॒रै: । द॒शऽभि॑: । वि । यू॒या॒: । य: । मा॒ । मोघ॑म् । यातु॑ऽधान । इति॑ ।आह॑ ॥४.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य। अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह ॥
स्वर रहित पद पाठअद्य । मुरीय । यदि । यातुऽधान: । अस्मि । यदि। वा । आयु: । ततप । पुरुषस्य । अध । स: । वीरै: । दशऽभि: । वि । यूया: । य: । मा । मोघम् । यातुऽधान । इति ।आह ॥४.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 15
विषय - न यातुधान, न सन्तापक
पदार्थ -
१. (यदि) = यदि मैं (यातुधान:) = पीड़ा का आधान करनेवाला राक्षस (अस्मि) = हूँ, तो (अद्या मुरीय) = आज ही मर जाऊँ। (यदि वा) = अथवा यदि (पूरुषस्य) = किसी भी पुरुष के (आयुः ततप) = जीवन को मैं सन्तस करता हूँ तो मैं उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँ। पापी बनने से मर जाना अच्छा है। २. परन्तु (यः) = जो (मा) = मुझे (मोघम्) = व्यर्थ ही (यातुधान इति आह) = पीड़ित करनेवाला कहता है, अर्थात् मुझपर व्यर्थ ही दोषारोपण करता है, (स:) = वह (दशभिः वीरैः) = दसों पुत्रों से सब बन्धुओं से (वियूया:) = पृथक् हो जाए। सब बन्धु उसे अच्छा न समझें और उसका सामाजिक बहिष्कार कर दें।
भावार्थ -
न मैं राक्षसीवृत्तिवाला बनें और न ही किसी के जीवन को कष्टमय करनेवाला होऊँ।
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